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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


वास्तव में खाद्य के सम्बन्ध में यह शुद्धाशुद्ध-विचार गौण है। श्रीशंकराचार्य अपने उपनिषद्-भाष्य में इसी बात का दूसरे प्रकार से विवेचन करते हैं। उन्होंने 'आहार' शब्द की, जिसका अर्थ हम बहुधा भोजन लगाते हैं, एक दूसरे ही प्रकार से व्याख्या की है। उनके मतानुसार ''जो कुछ आहत हो, वही आहार है। शब्दादि विषयों का ज्ञान भोक्ता अर्थात् आत्मा के उपयोग के लिए भीतर आहत होता है। इस विषयानुभूतिरूप ज्ञान की शुद्धि को आहार- शुद्धि कहते हैं। इसलिए आहार-शुद्धि का अर्थ है - आसक्ति, द्वेष और मोह से रहित होकर विषय का ज्ञान प्राप्त करना। अतएव यह ज्ञान या 'आहार' शुद्ध हो जाने से उस व्यक्ति का सत्त्व पदार्थ अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, और सत्त्वशुद्धि हो जाने से अनन्त पुरुष के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान और अविच्छिन्न स्मृति प्राप्त हो जाती है।''
आहिरयते इति आहार:। शब्दादिविषयविज्ञानं भोक्तु: भोगाय आहिरयते। तस्य विषयोपलब्धिलक्षणस्य विज्ञानस्य शुद्धि: आहारशुद्धि:। रागद्वेषमोहदोषै: असंसृष्टं विषयविज्ञानम् इत्यर्थ:। तस्याम् आहारशुद्धौ सत्यां तद्वतः अंतःकरणस्यसत्त्वस्यशुद्धि: नैर्मल्यं भवति। सत्यशुद्धौ च सत्या यथावगते भूमात्मनि ध्रुवा अविच्छिन्ना स्मृति: अविस्मरणं भवति।  - छान्दोग्यउपनिषद् शांकरभाष्य 7/26/2

ये दो व्याख्याएँ ऊपर से विरोधी अवश्य प्रतीत होती हैं परन्तु फिर भी दोनों सत्य और आवश्यक हैं। सूक्ष्म शरीर अथवा मन का संयम करना स्थूल शरीर के संयम से निश्चय ही श्रेष्ठ है, परन्तु साथ ही साथ सूक्ष्म के लिए स्थूल का भी संयम परमावश्यक है। इसलिए आरम्भिक दशा में साधक को आहार सम्बन्धी उन सब नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिए,  जो उसकी गुरु-परम्परा से चले आ रहे हैं। परन्तु आजकल हमारे अनेक सम्प्रदायों में इस आहारादि विचार की इतनी बढ़ा-चढ़ी है, अर्थहीन नियमों की इतनी पाबन्दी है कि उन सम्प्रदायों ने मानो धर्म को रसोईघर में ही सीमित कर रखा है। उस धर्म के महान् सत्य वहाँ से बाहर निकलकर कभी आध्यात्मिकता के भानुप्रकाश में जगमगा सकेंगे, इसकी कोई सम्भावना नहीं।

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