ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भगवान श्रीरामकृष्ण कहते थे, ''एक दूसरे भी प्रकार का मनुष्य है, जिसकी उपमा समुद्र की सीपी से दी जा सकती है। सीपी समुद्र की तह छोड़कर स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूँद लेने के लिए ऊपर उठ जाती है और मुँह खोले हुए सतह पर तैरती रहती है। ज्योंही उसमें उस नक्षत्र का एक बूँद पानी पड़ता है, त्यों ही वह मुँह बन्द करके एकदम समुद्र की तह में चली जाती है और फिर ऊपर नहीं आती। इसी तरह, यह दूसरे प्रकार का तत्त्वपिपासु, विश्वासी साधक गुरुमन्त्र-रूप जलबिन्दु पाकर साधना के अगाध समुद्र में डूब जाता है और तनिक भी इधर-उधर देखता तक नहीं।''
इष्टनिष्ठा का भाव प्रकट करने के लिए यह एक अत्यन्त हृदयस्पर्शी और आलंकारिक उदाहरण हैं, और इतनी सुन्दर उपमा शायद ही पहले कभी दी गयी हो। साधक के लिए आरम्भिक दशा में यह एकनिष्ठा नितान्त आवश्यक है। हनुमानजी के समान उसे भी यह भाव रखना चाहिए, ''यद्यपि परमात्मदृष्टि से लक्ष्मीपति और सीतापति दोनों एक हैं, तथापि मेरे सर्वस्व तो वे ही कमललोचन श्रीराम हैं।''
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेद: परमात्मनि।
तथापि मम सर्वस्व राम: कमललोचन:।।
अथवा हिन्दी के एक सन्त कवि ने जैसा कहा है, ''सब के साथ बैठो, सब के साथ मिष्ट भाषण करो, सब का नाम लो और सब से 'हाँ हाँ' कहते रहो, पर अपना स्थान मत छोड़ो - अर्थात् अपना भाव दृढ़ रखो''
सबसे बसिये सबसे रसिये, सबका लीजिये नाम।
हां जी, हाँ जी करते रहिये, बैठिये अपने ठाम।।
उसे भी ऐसा ही करना चाहिए। तब यदि साधक सच्चे, निष्कपट भाव से साधना करे, तो गुरु के दिये हुए इस बीज-मन्त्र के प्रभाव से ही पराभक्ति और परम ज्ञानरूप विराट् वटवृक्ष उत्पन्न होकर, सब दिशाओं में अपनी शाखाएँ और जड़ें फैलाता हुआ धर्म के सम्पूर्ण क्षेत्र को आच्छादित कर लेगा। तभी सच्चे भक्त को यह अनुभव होगा कि उसका अपना ही इष्टदेवता विभिन्न सम्प्रदायों में विभिन्न नामों और विभिन्न रूपों से पूजित हो रहा है।
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