ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
अब बात यह है कि एकमात्र ईश्वर की उपासना ही भक्ति है। देव, पितर या अन्य किसी की उपासना भक्ति नहीं कही जा सकती। विभिन्न देवताओं की जो विभिन्न उपासना-पद्धतियाँ हैं, उनकी गणना कर्मकाण्ड में ही की जाती है। उसके द्वारा उपासक को किसी प्रकार के स्वर्ग-भोग के रूप में एक विशिष्ट फल ही मिलता है, उससे न भक्ति होती है, न मुक्ति। इसीलिए हमें एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए कि जब कभी दर्शनशास्त्रों के उच्चतम आदर्श परब्रह्म को उपासक प्रतीकोपासना द्वारा प्रतीक के स्तर पर नीचे खींच लाता है और स्वयं प्रतीक को ही अपनी आत्मा - अपना अन्तर्यामी समझ बैठता है, तो वह सम्पूर्ण रूप से लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है; क्योंकि प्रतीक वास्तव में कभी भी उपासक की आत्मा नहीं हो सकता। परन्तु जहाँ स्वयं ब्रह्म ही उपास्य होता है और प्रतीक उसका केवल प्रतिनिधिस्वरूप अथवा उसके उद्दीपन का कारण मात्र होता है - अर्थात् जहाँ प्रतीक के सहारे सर्वव्यापी ब्रह्म की उपासना की जाती है और प्रतीक को प्रतीक मात्र न देखकर उसका जगत्-कारण ब्रह्म के रूप में चिन्तन किया जाता है वहाँ उपासना निश्चित रूप से फलवती होती है।
इतना ही नहीं बल्कि उपासक का मन जब तक उपासना की प्रारम्भिक या गौणी अवस्था को नहीं पार कर जाता, तब तक तो उसके लिए यह बिलकुल अनिवार्य ही है। अतएव जब किसी देवता या अन्य किसी पुरुष की उपासना उस देवता या पुरुष के रूप में ही की जाती है, तो इस प्रकार की उपासना एक कर्म मात्र है। और वह एक विद्या होने के कारण, उपासक उस विशेष विद्या का फल भी प्राप्त करता है। परन्तु जब उस देवता या उस पुरुष को ब्रह्मरूप मानकर उसकी उपासना की जाती है, तो उससे वही फल प्राप्त होता है जो ईश्वरोपासना से। इसी से यह स्पष्ट है कि श्रुतियों और स्मृतियों के अनेक स्थलों में किस प्रकार किसी देवता, महापुरुष अथवा अन्य किसी अलौकिक पुरुष को लिया गया है, और उन्हें उनके देवत्व आदि स्वभाव से ऊपर उठा, उनकी ब्रह्मरूप से उपासना की गयी है।
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