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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


अद्वैतवादी कहते हैं 'नामरूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं हैं?'

विशिष्टाद्वैतवादी कहते हैं, 'वे प्रभु क्या सब की अन्तरात्मा नहीं है?'

शंकराचार्य अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य में कहते हैं,  ''आदित्य आदि की उपासना का फल वह ब्रह्म ही देता है, क्योंकि वही सब का नियन्ता है। जिस प्रकार प्रतिमा में विष्णु-दृष्टि आदि करनी पड़ती है, उसी प्रकार प्रतीकों में भी ब्रह्म-दृष्टि करनी पड़ती है। अतएव समझना होगा कि यहाँ पर वास्तव में ब्रह्म की ही उपासना की जा रही है।''
फलम् आदित्यादि-उपासनेषु ब्रह्म एव दास्यति सर्वाध्यक्षत्वात्। ईदृशं च अत्र ब्रह्मण: उपास्यत्वं, यत: प्रतीकेषु तद्दृष्टिअध्यारोपणं प्रतिमादिबु इव विष्णु-आदीनामू। - ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, 4/1/5

प्रतीक के सम्बन्ध में जो सब बातें कही गयी हैं, वे सब प्रतिमा के सम्बन्ध में भी घटती हैं - अर्थात् यदि प्रतिमा किसी देवता या किसी महापुरुष की सूचक हो, तो ऐसी उपासना भक्ति-प्रसूत नहीं है और वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती। पर यदि वह उसी एक परमेश्वर की सूचक हो, तो उस उपासना से भक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त हो सकती हैं।

संसार के मुख्य धर्मों में से वेदान्त, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के कुछ सम्प्रदाय बिना किसी आपत्ति के प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और प्रोटेस्टण्ट ये ही दो ऐसे धर्म हैं, जो इस सहायता की आवश्यकता नहीं मानते। फिर भी, मुसलमान प्रतिमा के स्थान में अपने पीरों और शहीदों की कब्रों का उपयोग करते हैं। और प्रोटेस्टण्ट लोग धर्म में सब प्रकार की बाह्य सहायता का तिरस्कार कर धीरे-धीरे वर्ष-प्रतिवर्ष आध्यात्मिकता से दूर हटते चले जा रहे हैं, यहाँ तक कि, आजकल, अग्रगण्य प्रोटेस्टण्टों और केवल नीतिवादी आगस्ट कोस्टे के शिष्यों तथा अज्ञेयवादियों में कोई भेद नहीं रह गया है।

फिर, ईसाई और इस्लाम धर्म में जो कुछ प्रतिमा-उपासना विद्यमान है, वह उसी श्रेणी की है, जिसमें प्रतीक या प्रतिमा की उपासना केवल प्रतीक या प्रतिमा-रूप से होती है - ब्रह्मदृष्टि से नहीं। अतएव वह कर्मानुष्ठान के ही समान है - उससे न भक्ति मिल सकती है, न मुक्ति। इस प्रकार की प्रतिमा-पूजा में उपासक ईश्वर को छोड़ अन्य वस्तुओं में आत्मसमर्पण कर देता है और इसलिए प्रतिमा, कब्र, मन्दिर आदि के इस प्रकार उपयोग को ही सच्ची मूर्तिपूजा कहते हैं। पर वह न तो कोई पाप कर्म है और न कोई अन्याय  - वह तो बस एक कर्म मात्र है, और उपासकों को उसका फल भी अवश्य मिलता है।

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