ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
प्रतीक तथा प्रतिमा-उपासना
अब हम प्रतीकोपासना तथा प्रतिमा-पूजन का विवेचन करेंगे। प्रतीक का अर्थ है वे वस्तुएँ, जो थोड़े-बहुत अंश में ब्रह्म के स्थान में उपास्य- रूप से ली जा सकती हैं। प्रतीक द्वारा ईश्वरोपासना का क्या अर्थ है? इस सम्बन्ध में भगवान रामानुज कहते हैं, ''जो वस्तु ब्रह्म नहीं हैं, उसमें ब्रह्मबुद्धि करके ब्रह्म का अनुसन्धान प्रतीकोपासना कहलाता है!''
अब्रह्मणि ब्रह्मदृष्टया अनुसंधानम्। - ब्रह्मसूत्र, रामानुजभाष्य 4/1/5
भगवान शंकराचार्य कहते हैं, ''मन की ब्रह्म-रूप से उपासना करो, यह आध्यात्मिक उपासना है; और आकाश ब्रह्म है, यह आधिदैविक।'' मन आभ्यन्तरिक प्रतीक है और आकाश बाह्य। इन दोनों की ही उपासना ब्रह्म के रूप में करनी होगी। वे कहते हैं, ''इसी प्रकार - 'आदित्य ही ब्रह्म है, यह आदेश है'... 'जो नाम को ब्रह्म के रूप में भजता है' - इन सब वाक्यों से प्रतीकोपासना के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न होता है...।''
मनो ब्रह्म इति उपासीत, इति अध्यात्मम्।'
'अथ आधिदैवतम् आकाश: ब्रह्म इति।'
तथा 'आदित्य: ब्रह्म इति आदेश:।'
‘स यः नाम ब्रह्म इति उपास्ते’ इति एवम् आदिषु
प्रतीकोपासनेषु संशय:। - ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, 4/1/5
प्रतीक शब्द का अर्थ है - किसी की ओर जाना, और प्रतीकोपासना का अर्थ है - ब्रह्म के स्थान में ऐसी किसी वस्तु की उपासना करना, जो कुछ या अधिक अंशों में ब्रह्म के सदृश हो, पर स्वयं ब्रह्म न हो। श्रुतियों में वर्णित प्रतीकों के अतिरिक्त पुराणों और तन्त्रशास्त्रों में भी प्रतीकों का उल्लेख है। सब प्रकार की पितृ-उपासना और देवोपासना इस प्रतीकोपासना के अन्तर्भुक्त की जा सकती है।
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