ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
स्पष्ट रूप से उच्चारित जितने भी शब्द हैं, उनकी उच्चारणक्रिया मुख में जिह्वा के मूल से आरम्भ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है। 'अ' जिह्वामूल अर्थात् कण्ठ से उच्चारित होता है, और 'उ' उस शक्ति का सूचक है, जो जिह्वामूल से आरम्भ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त होती है, और 'म् ओठों से होनेवाला अन्तिम शब्द है। यदि इस 'ॐ' का उच्चारण ठीक ढंग से किया जाय, तो इससे शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है - दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। अतएव यह 'ॐ' ही स्फोट का सब से उपयुक्त वाचक शब्द है - और यह स्फोट ही 'ॐ' का प्रकृत वाच्य है। और चूंकि वाचक वाच्य से कभी अलग नहीं हो सकता, इसलिए 'ॐ' और स्फोट अभिन्न हैं। फिर, यह स्फोट इस व्यक्त जगत् का सूक्ष्मतम अंश होने के कारण ईश्वर के अत्यन्त निकटवर्ती है तथा ईश्वरीय ज्ञान की प्रथम अभिव्यक्ति है; इसलिए 'ॐ' ही ईश्वर का सच्चा वाचक है। और जिस प्रकार अपूर्ण जीवात्माएँ एकमेव अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन विशेष विशेष भाव से और विशेष विशेष गुणों से युक्त रूप में ही कर सकते हैं, उसी प्रकार उसके देहरूप इस अखिल ब्रह्माण्ड का चिन्तन भी साधक के मनोभाव के अनुसार विभिन्न रूप से करना पड़ता है।
उपासक के मन में जब जिस प्रकार के तत्व प्रबल होते हैं, तब उसी प्रकार के भाव जागृत होते हैं। फल यह है कि एक ही ब्रह्म भिन्न भिन्न रूप में भिन्न भिन्न गुणों की प्रधानता से युक्त दीख पड़ता है और वही एक विश्व विभिन्न रूपों में प्रतिभात होता है। जिस प्रकार अल्पतम विशेषभावापन्न तथा सार्वभौमिक वाचक शब्द 'ॐ' के सम्बन्ध में वाच्य और वाचक आपस में अभेद्य रूप से सम्बद्ध हैं, उसी प्रकार वाच्य और वाचक का यह अविछिन्न सम्बन्ध भगवान और विश्व के विभिन्न खण्डभावों पर भी लागू है, अतएव उनमें से प्रत्येक का एक विशिष्ट वाचक शब्द होना आवश्यक है। ये वाचक शब्द ऋषियों की गम्मीरतम आध्यात्मिक अनुभूति से उत्पन्न हुए हैं, और वे भगवान तथा विश्व के जिन विशेष-विशेष खण्डभावों के वाचक हैं, उन विशेष भावों को यथासम्भव प्रकाशित करते है। जिस प्रकार 'ॐ' अखण्ड ब्रह्म का वाचक है, उसी प्रकार अन्यान्य मन्त्र भी उसी परमपुरुष के खण्ड खण्ड भावों के वाचक हैं। ये सभी ईश्वर के ध्यान और प्रकृत ज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं।
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