ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है 'ॐ'। और चूंकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए यह 'ॐ' भी इस नित्य स्फोट से नित्यसंयुक्त है। अतएव समस्त विश्व की उत्पत्ति सारे नाम-रूपों की जननीस्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम शब्द से ही मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि यद्यपि शब्द और भाव में नित्य सम्बन्ध है तथापि एक ही भाव के अनेक वाचक शब्द हो सकते हैं, इसलिए यह आवश्यक नहीं कि यह 'ॐ' नामक शब्दविशेष ही सारे जगत् की अभिव्यक्ति के कारणस्वरूप भाव का वाचक हो। तो इस पर हमारा उत्तर यह है कि एकमेव यह 'ॐ' ही इस प्रकार सर्वभावव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी उसके समान नहीं। स्फोट ही सारे भावों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रूप से विकसित कोई विशिष्ट भाव नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बच रहता है, वही स्फोट है। इसीलिए इस स्फोट को 'नादब्रह्म' कहते हैं।
अब बात यह है कि इस अव्यक्त स्फोट को प्रकाशित करने के लिए यदि किसी वाचक शब्द का उपयोग किया जाय तो वह शब्द उसे इतना विशिष्ट कर देता है कि उसका फिर स्फोटत्व ही नहीं रह जाता। इसीलिए जो वाचक शब्द उसे सब से कम विशेषभावापन्न करेगा, पर साथ ही उसके स्वरूप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वही उसका सब से सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है एकमात्र 'ॐ' क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म् जिनका एक साथ उच्चारण करने से 'ॐ' होता है, समस्त शब्दों के साधारण वाचक के तौर पर लिये जा सकते हैं। अक्षर 'अ' सारे अक्षरों में सब से कम विशेषभावापन्न है। इसीलिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं - ''अक्षरों में मैं 'अ' कार हूँ।''*
अक्षराणाम् अकारोऽस्मि। - गीता, 10/33
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