ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
कई दिनों के घोर परिश्रम के बाद उसने एक मूर्ति तैयार तो की, पर वह बस बन्दर जैसी थी! इसी प्रकार जब हम भगवान को उनके असल रूप में - उनके निर्गुण, पूर्ण स्वरूप में सोचने का प्रयत्न करते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से बुरी तरह असफल होते हैं; क्योंकि जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक मनुष्य से उच्चतर रूप में हम उनकी कल्पना ही नहीं कर सकते। एक समय ऐसा आयगा, जब हम अपनी मानवी प्रकृति के परे चले जायँगे, और तब हम उन्हें उनके असली स्वरूप में देख सकेंगे। पर जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक हमें उनकी उपासना मनुष्य में और मनुष्य के रूप में ही करनी होगी। तुम चाहे कितनी ही लम्बी-चौड़ी बातें क्यों न करो, कितना भी प्रयत्न क्यों न करो, पर तुम भगवान को मनुष्य के सिवा और कुछ सोच ही नहीं सकते। तुम भले ही ईश्वर और संसार की सारी वस्तुओं पर विद्वत्तापूर्ण लम्बी लम्बी वक्तृताएँ दे डालो, बड़े युक्तिवादी बन जाओ और अपने मन को समझा लो कि ईश्वरावतार की ये सब बातें अर्थहीन और व्यर्थ हैं, पर क्षण भर के लिए सहज बुद्धि से विचार तो करो। इस प्रकार की अद्भुत विचार-बुद्धि से क्या प्राप्त होता है? कुछ नहीं - शून्य, केवल कुछ शब्दों का ढेर!
अब भविष्य में जब कभी तुम किसी मनुष्य को अवतार-पूजा के विरुद्ध एक बड़ा विद्वत्तापूर्ण भाषण देते हुए सुनो, तो सीधे उसके पास चले जाना और पूछना कि उसकी ईश्वर-सम्बन्धी धारणा क्या है, 'सर्वशक्तिमान', 'सर्वव्यापी' आदि शब्दों का उच्चारण करने से वह शब्द-ध्वनि के अतिरिक्त और क्या समझता है? - तो देखोगे, वास्तव में वह कुछ नहीं समझता। वह उनका ऐसा कोई अर्थ नहीं लगा सकता, जो उसकी अपनी मानवी प्रकृति से प्रभावित न हो। इस बात में तो उसमें और रास्ता चलनेवाले एक अपढ़ गँवार में कोई अन्तर नहीं। फिर भी यह अपढ़ व्यक्ति कहीं अच्छा: है, क्योंकि कम से कम वह शान्त तो रहता है, वह संसार की शान्ति को तो भंग नहीं करता है, पर वह लम्बी लम्बी बातें करनेवाला व्यक्ति मनुष्यजाति में अशान्ति और दुःख पैदा कर देता है। धर्म का अर्थ है प्रत्यक्ष अनुभूति। अतएव इस अनुभूति और थोथी बात के बीच जो विशेष भेद हैं, उसे हमें अच्छी तरह पकड़ लेना चाहिए। आत्मा के गम्मीरतम प्रदेश में हम जो अनुभव करते हैं, वही प्रत्यक्षानुभूति है। इस सम्बन्ध में सहज बुद्धि जितनी अ-सहज (दुर्लभ) हैं, उतनी और कोई वस्तु नहीं।
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