ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
हम अपनी वर्तमान प्रकृति से सीमित हो ईश्वर को केवल मनुष्य-रूप में ही देख सकते हैं। मान लो, भैसों की इच्छा हुई कि भगवान की उपासना करें - तो वे अपने स्वभाव के अनुसार भगवान को एक बड़े भैंसे के रूप में देखेंगे। यदि एक मछली भगवान की उपासना करना चाहे, तो उसे भगवान को एक बड़ी मछली के रूप में सोचना होगा। इसी प्रकार मनुष्य भी भगवान को मनुष्य-रूप में ही देखता है। यह न सोचना कि ये सब विभिन्न धारणाएँ केवल विकृत कल्पनाओं से उत्पन्न हुई हैं।
मनुष्य, भैंसा, मछली - ये सब मानो भिन्न भिन्न बर्तन है; ये सब बर्तन अपनी अपनी आकृति और जल- धारण-शक्ति के अनुसार ईश्वररूपी समुद्र के पास अपने को भरने के लिए जाते हैं। पानी मनुष्य में मनुष्य का रूप ले लेता है, भैंस में भैंसे का और मछली में मछली का। प्रत्येक बर्तन में वही ईश्वररूपी समुद्र का जल है। जब मनुष्य ईश्वर को देखता है, तो वह उन्हें मनुष्य-रूप में देखता है। और यदि पशुओं में ईश्वर-सम्बन्धी कोई ज्ञान रहे, तो उन्हें वे अपनी अपनी धारणा के अनुसार पशु के रूप में देखेंगे। अत: हम ईश्वर को मनुष्य-रूप के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में देख ही नहीं सकते और इसलिए हमें मनुष्य-रूप में ही उनकी उपासना करनी पड़ेगी। इसके सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं है।
दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य-रूप में उपासना नहीं करते। एक तो नरपशु, जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानवजाति की सारी दुर्बलताओं के ऊपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवी प्रकृति की सीमा के भी उस पार चले गये हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आत्मस्वरूप हो गयी है। वे ही भगवान को उनके असल स्वरूप में भज सकते हैं। अन्य विषयों के समान यहाँ भी दोनों चरम भाव एक-से ही दिखते हैं। अतिशय अज्ञानी और परम ज्ञानी दोनों ही उपासना नहीं करते। नरपशु अज्ञानवश उपासना नहीं करता, और जीवमुक्त ने तो अपनी आत्मा में परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है, अत: उनके लिए उपासना की फिर आवश्यकता कहाँ? इन दो चरम भावों के बीच में रहनेवाला कोई मनुष्य यदि आकर तुमसे कहे कि वह भगवान को मनुष्य-रूप में भजनेवाला नहीं है, तो उस पर दया करना। उसे अधिक क्या कहें, वह बस थोथी बकवास करनेवाला है। उसका धर्म अविकसित और खोखली बुद्धिवालों के लिए है।
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