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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


अवतार

जहाँ कहीं प्रभु का गुणगान होता हो, वही स्थान पवित्र है। तो फिर जो मनुष्य प्रभु का गुणगान करता है, वह और भी कितना पवित्र न होगा! अतएव जिनसे हमें आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त होती है, उनके समीप हमें कितनी भक्ति के साथ जाना चाहिए। यह सत्य है कि संसार में ऐसे धर्मगुरुओं की संख्या बहुत थोड़ी है, पर यह बात नहीं कि संसार ऐसे महापुरुषों से कभी शून्य हो जाय। वे तो मानवजीवन-उद्यान के सुन्दरतम पुष्प हैं और 'अहैतुक दयासिन्धु' हैं।  -विवेकचूड़ामणि, 35

भगवान श्रीकृष्ण भागवत में कहते हैं, 'मुझे ही आचार्य जानो।'
आचार्यं मां विजानीयात् इत्यादि। - श्रीमद्भागवत, 1/117/26

यह संसार ज्यों ही इन आचार्यों से बिलकुल रहित हो जाता है, त्यों ही यह एक भयंकर नरककुण्ड बन जाता है और नाश की ओर द्रुत वेग से बढ़ने लगता है।

साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं - इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा से पतित से पतित व्यक्ति भी क्षण भर में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं - नरदेहधारी भगवान हैं। उनके माध्यम बिना हम अन्य किसी भी उपाय से भगवान को नहीं देख सकते। हम उनकी उपासना किये बिना रह ही नहीं सकते। और वास्तव में वे ही एकमात्र ऐसे हैं जिनकी उपासना करने के लिए हम बाध्य हैं।

इन नरदेहधारी ईश्वरावतारों के माध्यम बिना कोई मनुष्य ईश्वर-दर्शन नहीं कर सकता। जब हम अन्य किसी साधन द्वारा ईश्वर-दर्शन का यत्न करते हैं, तो हम अपने मन में ईश्वर का एक विचित्र-सा रूप गढ़ लेते हैं और सोचते हैं कि बस यही ईश्वर का सच्चा रूप है। एक बार एक अनाड़ी आदमी से भगवान शिव की मूर्ति बनाने को कहा गया।

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