ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
गुरु ही धर्म-पिपासु की आँखें खोलनेवाले होते हैं। अत: गुरु के साथ हमारा सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा पूर्वज के साथ उसके वंशज का। गुरु के प्रति विश्वास, नम्रता, विनय और श्रद्धा के बिना हममें धर्मभाव पनप ही नहीं सकता। और यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि जिन देशों में गुरु और शिष्य में इस प्रकार का सम्बन्ध विद्यमान है, केवल वहीं असाधारण आध्यात्मिक पुरुष उत्पन्न हुए हैं; और जिन देशों में इस प्रकार के गुरु- शिष्यसम्बन्ध की उपेक्षा हुई है, वहाँ धर्मगुरु एक वक्ता मात्र रह गया है - गुरु को मतलब रहता है अपनी 'दक्षिणा' से और शिष्य को मतलब रहता है गुरु के शब्दों से, जिन्हें वह अपने मस्तिष्क में ठूँस लेना चाहता है। यह हो गया कि बस दोनों अपना अपना रास्ता नापते हैं। वहाँ आध्यात्मिकता बिलकुल नहीं के बराबर ही रहती है - न कोई शक्ति-संचार करनेवाला होता है और न कोई उसका ग्रहण करनेवाला। ऐसे लोगों के लिए धर्म एक व्यवसाय हो जाता है। वे सोचते हैं कि वे उसे खरीद सकते हैं। ईश्वर करते, धर्म इतना सुलभ हो जाता! पर दुर्भाग्य, ऐसा हो नहीं सकता।
धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है - वही सर्वोच्च विद्या है। वह पैसों से नहीं मिल सकता और न पुस्तकों से ही। तुम भले ही संसार का कोना कोना छान डालो, हिमालय, आल्प्स और काकेशस के शिखर पर चढ़ जाओ, अथाह समुद्र का तल भी नाप डालो, तिब्बत और गोबी-मरुभूमि की धूल छान डालो, पर जब तक तुम्हारा हृदय धर्म को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हो जाता और जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, तब तक तुम धर्म को कहीं न पाओगे। और ये विधाता-निर्दिष्ट गुरु प्राप्त हो जायँ, तो उनके निकट बालकवत् विश्वास और सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो, और साक्षात् ईश्वर-ज्ञान से उनकी सेवा करो। जो लोग इस प्रकार प्रेम और श्रद्धा-सम्पन्न होकर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट सत्यस्वरूप भगवान सत्य, शिव और सौन्दर्य के अलौकिक तत्त्वों को प्रकट कर देते हैं।
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