ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
यदि तुम भक्त होना चाहते हो, तो तुम्हारे लिए यह जानना बिल्कुल आवश्यक नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में हुए थे या व्रज में, वे करते क्या थे, और जब उन्होंने गीता की शिक्षा दी तो उस दिन ठीकठीक तिथि क्या थी। गीता में कर्तव्य और प्रेम सम्बन्धी जो उदात्त उपदेश दिये गये हैं, उनको अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो - उनकी आवश्यकता हृदय से अनुभव करो। बस यही तुम्हारे लिए आवश्यक है। उसके तथा उसके प्रणेता के सम्बन्ध में अन्य सब विचार तो केवल विद्वान के आमोद के लिए हैं। वे जो चाहते हैं, करें। हम तो उनके पाण्डित्यपूर्ण विवाद पर केवल 'शान्ति: शान्ति' कहेंगे और बस 'आम खायँगे'।
गुरु के लिए दूसरी आवश्यक बात है - निष्पापता। बहुधा प्रश्न पूछा जाता है, ''हम गुरु के चरित्र और व्यक्तित्व की ओर ध्यान ही क्यों दें? हमें तो यही देखना चाहिए कि वे क्या कहते हैं, और बस उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।'' पर यह बात ठीक नहीं। यदि कोई मनुष्य मुझे गति-विज्ञान, रसायनशास्त्र अथवा अन्यथा कोई भौतिक विज्ञान सिखाना चाहे, तो उसका चरित्र कैसा भी हो सकता है, क्योंकि इन विषयों के लिए केवल तेज बुद्धि की ही आवश्यकता है; परन्तु अध्यात्मविज्ञान के आचार्य यदि अशुद्धचित्त रहें, तो उनमें लेशमात्र भी धर्म का प्रकाश नहीं रह सकता। एक अशुद्धचित्त व्यक्ति हमें क्या धर्म सिखायेगा? अपने तईं आध्यात्मिक सत्य की उपलब्धि करने और दूसरों में उसका संचार करने का एकमात्र उपाय है - हृदय और मन की पवित्रता। जब तक चित्तशुद्धि नहीं होती, तब तक भगवद्दर्शन अथवा उस अतीन्द्रिय सत्ता का आभास तक नहीं मिलता।
अतएव गुरु के सम्बन्ध में हमें पहले यह जान लेना होगा कि उनका चरित्र कैसा है; और तब फिर देखना होगा कि वे कहते क्या हैं। उन्हें पूर्ण रूप से शुद्धचित्त होना चाहिए, तभी उनके शब्दों का मूल्य होगा, क्योंकि केवल तभी वे सच्चे संचारक हो सकते हैं। यदि स्वयं उनमें आध्यात्मिक शक्ति न हो, तो वे संचार ही क्या करेंगे? उनके मन में आध्यात्मिकता का इतना प्रबल स्पन्दन होना चाहिए, जिससे वह सहज रूप से शिष्य के मन में संचरित हो जाय। वास्तव में गुरु का काम यह है कि वे शिष्य में आध्यात्मिक शक्ति का संचार कर दें, न कि शिष्य की बुद्धिवृत्ति अथवा अन्य किसी शक्ति को उत्तेजित मात्र करें।
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