ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 283 पाठक हैं |
स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
जो लोग इन उपायों से दूसरों को धर्म की शिक्षा देते हैं, वे केवल अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। उनकी यही इच्छा रहती है कि संसार उन्हें बहुत बड़ा विद्वान् मानकर उनका सम्मान करे। संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा। उन्होंने श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और धात्वर्थ के फेर में नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने, जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एक आध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें, उस शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, किसने उस शब्द का सब से पहले उपयोग किया, वह क्या खाता था, वह कितनी देर सोता था, आदि-आदि - इसी प्रकार की सब अनर्थक बातें भरी हैं।
भगवान श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे - ''एक बार दो आदमी किसी बगीचे में घूमने गये। उनमें से एक जिसकी विषय-बुद्धि जरा तेज थी, बगीचे में घुसते ही हिसाब लगाने लगा - 'यहाँ कितने पेड़ आम के हैं, किस पेड़ में कितने आम हैं, एक-एक डाली में कितनी पत्तियाँ हैं, बगीचे की कीमत कितनी हो सकती है - आदि-आदि।' पर दूसरा आदमी बगीचे के मालिक से भेंट करके, एक पेड़ के नीचे बैठ गया और मजे से एक एक आम गिराकर खाने लगा। अब बताओ तो सही, इन दोनों में कौन ज्यादा बुद्धिमान है? आम खाओ तो पेट भी भरे, केवल पत्ते गिनने और यह सब हिसाब लगाने से क्या लाभ?'' यह पत्तियाँ और डालें गिनना तथा दूसरों को यह सब बताने का भाव बिलकुल छोड़ दो। यह बात नहीं कि इस सब की कोई उपयोगिता नहीं है - पर धर्म के क्षेत्र में नहीं। इन पत्तियाँ गिननेवालों में तुम एक भी आध्यात्मिक महापुरुष नहीं पाओगे। मानवजीवन के सर्वोच्च ध्येय - मानव की महत्तम गरिमा - धर्म के लिए इतने 'पत्तियाँ गिनने के श्रम की आवश्यकता नहीं।
|