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भक्तियोग
भक्तियोग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ :
Ebook
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पुस्तक क्रमांक : 9558
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आईएसबीएन :9781613013427 |
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
धर्मसम्बन्धी बात सुनना, धार्मिक पुस्तकें पढ़ना - केवल इतने से ही यह न सोच लेना चाहिए। कि हृदय में सच्ची पिपासा है। उसके लिए तो हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ निरन्तर जूझे रहना होगा, सतत युद्ध करना होगा और उसे अपने वश में लाने के लिए अविराम प्रयत्न करना होगा। कब तक? जब तक हमारे हृदय में धर्म के लिए सच्ची व्याकुलता उत्पन्न न हो जाय, जब तक विजय-श्री हमारे हाथ न लग जाय। यह कोई एक या दो दिन की बात तो है नहीं - कुछ वर्ष या कुछ जन्म की भी बात नहीं; इसके लिए सम्भव है, हमें सैकड़ों जन्म तक इसी प्रकार संग्राम करना पड़े हो सकता है, किसी को सिद्धि थोड़े समय में ही प्राप्त हो जाय; पर यदि उसके लिए अनन्त काल तक भी बाट जोहनी पड़े, तो भी हमें तैयार रहना चाहिए। जो शिष्य इस प्रकार अध्यवसाय के साथ साधना में प्रवृत्त होता है, उसे सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है।
गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रों का मर्म ज्ञात हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद और कुरान पढ़ता है; पर वे तो केवल शब्दराशि हैं, धर्म की सूखी ठठरी मात्र हैं। जो गुरु शब्दाडम्बर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं। शास्त्रों का शब्दजाल एक सघन वन के सदृश है, जिसमें मनुष्य का मन भटक जाता है और रास्ता ढूँढे भी नहीं पाता। ''शब्दजाल तो चित्त को भटकानेवाला एक महा वन है।''
शब्दजाल महारण्य चित्तभ्रमणकारणम्। - विवेकचूड़ामणि, 62
''विचित्र ढंग की शब्दरचना, सुन्दर भाषा में बोलने के विभिन्न प्रकार और शास्त्र- मर्म की नाना प्रकार से व्याख्या करना - ये सब पण्डितों के भोग के लिए ही है; इनसे अन्तर्दृष्टि का विकास नहीं होता।''
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्य विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये।। - विवेकचूड़ामणि, 60
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