लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना

भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :77
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9556
आईएसबीएन :9781613012864

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

371 पाठक हैं

साधकगण इस प्रश्न का उत्तर हमेशा खोजते रहते हैं


गोस्वामीजी प्रार्थना भले ही कर सकते थे, पर श्रीराम की सभा में पत्र लेकर जाने का जो उन्होंने वर्णन किया है, आपने उसको पढ़ा और देखा होगा कि अलग-अलग पात्रों से गोस्वामीजी यह कहते हैं कि मेरा यह पत्र आप प्रभु तक पहुँचाइए और मेरा समर्थन कीजिए और फिर अन्त में वे यह कहते हैं कि मेरी प्रार्थना सुन करके अन्त में प्रश्न आया कि मेरा यह पत्र कौन देगा? जब मैंने भरतजी से कहा तो उन्होंने कहा कि मुझे तो बड़ा संकोच लगता है, मैं तो प्रभु के सामने दृष्टि नहीं उठा पाता, मैं कैसे पत्र दूँ? किसी और को यह कार्य सौंपिए। हनुमानजी की ओर देखा गया तो हनुमानजी ने कहा कि वन की बात होती तो वन में तो मैं खुलकर बात कर लेता था, पर यहाँ तो राजसभा का शिष्टाचार है, शायद मेरा बोलना यहाँ इतना उपयुक्त न हो। गोस्वामीजी कहते हैं कि तब दृष्टि लक्ष्मणजी की ओर गयी। श्रीभरत और हनुमानजी ने लक्ष्मणजी से कहा कि यह तुलसीदास का पत्र आया हुआ है और आपके तथा प्रभु के बीच तो कोई संकोच का प्रश्न नहीं है घर और वन आपके लिए बराबर हैं। आप ही यह पत्र श्रीराम के हाथों में दे दीजिए और 'विनय-पत्रिका' में तुलसीदासजी कहते हैं कि-
मारुति-मन, रुचि भरतकी लखि लषन कही है।

 -विनय-पत्रिका, 279


लक्ष्मणजी ने भगवान् राम से कहा। वर्णन भूतकाल का हो रहा है कि वर्तमान काल का? सभा में श्रीराम बैठे हुए हैं, श्रीभरत बैठे हैं, श्रीलक्ष्मण बैठे हैं, श्रीशत्रुघ्न बैठे हुए हैं, पर विशेषता क्या हुई ? त्रेतायुग के उस रामराज्य में तुलसीदासजी पत्र लेकर नहीं गये थे, पर कलियुग में भी श्रीराम की सभा है, तुलसीदासजी इसीलिए कहते हैं कि हमारे राम तो ईश्वर हैं, उनकी सभा अब भी है, उनके पात्र अब भी हैं और उस सभा में मैं अपना पत्र लेकर गया। अन्त में वहाँ श्रीलक्ष्मणजी ने भगवान् राम से यह कहा कि-
कलिकालहु नाथ!
नाम सो परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है।

 -विनय-पत्रिका, 279

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book