लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

भगवान श्रीकृष्ण के वचन

¤ सत्य को जाननेवाला निष्काम कर्मयोगी सोचता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ।'

¤ कर्मों का सन्यास और निष्काम कर्मयोग दोनों परम कल्याण तक ले जाते हैं, किन्तु इन दोनों में कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है।

¤ पण्डितजन नहीं, किन्तु बालबुद्धि के लोग ही ज्ञानयोग और कर्मयोग को भिन्न भिन्न कहते हैं। जो पुरुष किसी एक में सुस्थित होता है, वह दोनों के फल को प्राप्त करता है।

¤ ज्ञानयोगी जिस परमधाम को प्राप्त करते हैं, वही कर्मयोगियों के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। अतः जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को एक देखता है, वही वस्तुतः देखता है।

¤ परन्तु हे महाबाहो, निष्काम कर्मयोग के बिना कर्मों का संन्यास प्राप्त करना कठिन है। निष्काम कर्मयोग के प्रति निष्ठावान मुनि ब्रह्म को शीघ्र प्राप्त हो जाता है।

¤ जो मेरे शरणागत होकर सदैव समस्त कर्मों का सम्पादन करता है वह मेरी कृपा से शाश्वत और सनातन धाम को प्राप्त कर लेता है।

¤ जिस पुरुष के कर्म कामनाओं की स्पृहा से मुक्त हैं जिसके कर्म ज्ञानाग्नि से प्रदग्ध हो गये हैं, उसे ही विद्वज्जन मुनि कहते हैं।

¤ जो पुरुष अपने आप जो प्राप्त हो जाए उसमें ही सन्तुष्ट रहनेवाला है, जो द्वन्द्वातीत, ईर्ष्यारहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाव वाला है, वह कर्मों को करके भी उनसे नहीं बँधता।

¤ जो आसक्ति से रहित और मुक्त है, जिसका मन ज्ञान में स्थित है और जो कर्मों को यज्ञवत् करता है, उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं।

¤ वस्तुतः कर्म के फल की इच्छा को त्यागे बिना कोई योगी नहीं बन सकता।

 

0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book