ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी भगवान श्रीकृष्ण की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान श्रीकृष्ण के वचन
¤ परन्तु जो व्यक्ति आत्मा ही से रति करे, आत्मा में ही तृप्त हो और आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता।
¤ हे पार्थ! मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है तथा तीनों लोकों में कुछ भी अप्राप्त अथवा प्राप्तव्य नहीं है, तो भी मैं कर्म में लगा हुआ हूँ।
¤ यदि आलस्यरहित मैं कर्म करना त्याग दूं तो पार्थ, मनुष्य सभी प्रकार से मेरे आचरण का अनुकरण करने लगेंगे।
¤ क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जैसा जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी उसका अनुसरण करते हैं। वह पुरुष जैसा प्रमाण स्थापित करता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
¤ यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये सब लोक भ्रष्ट हो जाएँ और मैं वर्णसंकरता पैदा करनेवाला हो जाऊँ और इस सारी प्रजा का हनन करनेवाला बन जाऊँ।
¤ अत: तू अनासक्त हो, निरन्तर कर्तव्य-कर्म का सम्यक् आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
¤ राजा जनक तथा अन्य लोगों ने भी कर्म के ही द्वारा परमसिद्धि को प्राप्त किया है, इसलिए लोकसंग्रह की दृष्टि से भी तू कर्म ही करने के योग्य है।
¤ हे भारत! जिस प्रकार कर्म में आसक्त अज्ञानी जन कर्म करते हैं, उसी प्रकार अनासक्त विद्वान् को भी लोक शिक्षा की आकांक्षा करते हुए कर्म करना चाहिए।
¤ ज्ञानी पुरुष को कर्म में आसक्ति रखनेवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न नहीं करना चाहिए। उसे स्वयं निष्ठापूर्वक कर्म करते हुए उन लोगों को सम्यक् रूप से सब प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिए।
¤ सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं, तथापि अहंकार से विमूढ व्यक्ति समझता है कि 'मैं कर्ता हूँ।'
¤ अच्छे प्रकार से आचरित दूसरे के धर्म से गुणरहित स्वधर्म धर्म भी श्रेयस्कर है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है, पर दूसरे का धर्म भयावह होता है।
¤ जब कार्य मेरी सेवा के रूप में किया जाता है तब वह पुनीत और पवित्र बन जाता है।
¤ जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पित करके आसक्तिरहित हो करता है, वह पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्ता जल से।
¤ जो पुरुष अनासक्त होकर कर्म करता है, जिसका मन शुद्ध है, जिसका शरीर और इन्द्रियाँ वश में है और जिसकी आत्मा सर्वात्मा बन गयी है, वह कर्म करता हुआ भी उसके प्रभाव से अछूता रहता है।
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