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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

कर्मयोग


¤ बुद्धि से युक्त होकर, कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर, आत्मानुभूति प्राप्त कर और जन्मरूप बन्धन से छूटकर वे निर्दोष परमपद को प्राप्त करते हैं।

¤ हे धनंजय! आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में सम होकर योग में स्थित होते हुए कर्मों को कर।

¤ बुद्धियोग की अपेक्षा सकाम कर्म अत्यन्त तुच्छ है। इसलिए हे धनंजय, तू बुद्धि का आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल की वासनावाले अत्यन्त दीन होते हैं।

¤ कर्म की कुशलता ही योग है, अतः योग के लिए चेष्टा कर।

¤ तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार है, फल में नहीं। कर्मफल तेरा हेतु न हो और तेरी अकर्म में भी प्रीति न हो।

प्रश्न - हे जनार्दन! यदि आप कर्मों की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव, आप मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगा रहे हैं? उस एक बात को निश्चय करके कहिए, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त करूँ।

उत्तर - हे अनघ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले ही कही गयी हैं। ज्ञानयोग से ज्ञानियों की और निष्काम कर्मयोग से योगियों की।

¤ मनुष्य न तो कर्मों को न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न मात्र संन्यास से ही उसे सिद्धि की उपलब्धि होती है।

¤ क्योंकि कोई भी व्यक्ति क्षणमात्र के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृतिजात गुणों के द्वारा अवश होकर कर्म करता है।

¤ जो मूढ़बुद्धि पुरुष कमेंन्द्रियों को तो रोकता है पर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है।

¤ किन्तु है अर्जुन, जो मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त रूप से कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ट है।

¤ तू नियत स्वधर्मरूप कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध न होगा।

¤ संसार कर्म से बँध जाता है, यदि कर्म यश (भगवत्प्रीति) के लिए न किया जाए। अतः हे कौन्तेय, आसक्ति का त्याग कर और ईश्वर-प्रीत्यर्थ अपना कर्म कर।

¤ कर्म को तू ब्रह्म (वेद) से उत्पन्न हुआ जान और ब्रह्म अविनाशी (परमात्मा) से उत्पन्न हुआ है।

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