ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी भगवान श्रीकृष्ण की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान श्रीकृष्ण के वचन
शरणागति
¤ समस्त कर्मों को मानसिक रूप से मुझे समर्पित करके, मुझे परमगति मानते हुए तथा बुद्धि के द्वारा योग का अवलम्बन करके तू निरन्तर मुझमें चित्त को लगा।
¤ मुझमें चित्त लगाकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को पार कर लेगा। किन्तु यदि अहंकार के कारण तू मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो विनष्ट हो जाएगा।
¤ हे अर्जुन! ईश्वर सर्वभूतों के हृदय में स्थित है तथा अपनी माया से वह समस्त प्राणियों को इस प्रकार भ्रमाता है, मानो वे यन्त्र पर आरूढ़ हों।
¤ इसलिए हे भारत! तू सब प्रकार से उस (परमेश्वर) की ही शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और सनातन धाम को प्राप्त करेगा।
¤ हे कौन्तेय! तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ तपस्या करता है, वह सब मुझे अर्पित कर।
¤ जो भी भक्तिपूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल अर्पित करता है, उसकी शुद्ध मन से भक्तिपूर्वक अर्पित की गयी वस्तुओं को मैं ग्रहण करता हूँ।
¤ मेरी यह अलौकिक त्रिगुणमयी योगमाया अत्यन्त दुस्तर है, जो मेरी शरण में आते हैं, वे ही इस माया को पार कर पाते हैं।
¤ यदि कोई अतिशय दुराचारी भी मुझे अनन्य भाव से भजता है, तो उसे साधु ही माना जाना चाहिए, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है।
¤ हे कौन्तेय! वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त करता है। तू निश्चयपूर्वक यह जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
¤ हे पार्थ। जो लोग पाप-योनि में उत्पन्न हैं एवं जो स्त्री, वैश्य तथा शूद्रादिक हैं, वे भी मेरी शरण में आकर परम गति को ही प्राप्त करते हैं।
¤ मुझमें अचल मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा भजन करनेवाला हो, मुझे साष्टांग प्रणाम कर, इस प्रकार मेरी शरण में आकर अपनी आत्मा को मुझसे युक्त करके तू मुझे ही प्राप्त करेगा।
¤ मैं सभी का उद्रम हूँ, मुझसे सभी विकसित होते हैं - ऐसा जानते हुए बुद्धिमान व्यक्ति भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं।
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