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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

¤ जो मेरे परायण भक्त सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पित कर अनन्य ध्यानयोग से निरन्तर मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं, मुझमें समाहित-चित्त इन प्रेमी भक्तों का मैं तत्काल मृत्युरूप संसार-सागर से उद्धार कर देता हूँ।

¤ जो अद्वेषी, सर्वभूतों के प्रति मैत्री और करुणा से युक्त, ममता से रहित एवं निरहंकार, सुख और दुःख में सम, क्षमावान्, योगी, निरन्तर सन्तुष्ट, संयतात्मा एवं दृढ़निश्चयी है तथा मुझमें मन और बुद्धि को अर्पित कर देता है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

¤ जिससे संसार उद्विग्न नहीं होता और जो संसार से उद्विग्न नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष, भय तथा अन्य उद्वेगों से रहित है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

¤ जो अपेक्षा से रहित है, जो शुद्ध और दक्ष है, जो उदासीन और अव्यथित है तथा जिसने समस्त आरम्भों का त्याग कर दिया है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

¤ जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है, जो न शोक करता है और न आकांक्षा करता है, जिसने शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग कर दिया है, ऐसा भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है।

¤ जो पुरुष शत्रु और मित्र में सम होता है, मान और अपमान में अचंचल होता है, जो सर्दी और गर्मी में तथा सुख और दुःख में समान होता है तथा आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है।

¤ जो निन्दा और स्तुति को समान समझता है जो मौनी है तथा उसे जो भी प्राप्त है उसी में सन्तुष्ट है, जो अनिकेत, स्थिरमति और भक्तिमान् है, वह पुरुष मुझे प्रिय है।

¤ जो मुझे परमगति समझते हैं तथा श्रद्धा और भक्तिपूर्वक इस धर्ममय अमृत का सेवन करते हैं, वे मुझे अतिशय प्रिय हैं।

 

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