ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी भगवान श्रीकृष्ण की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान श्रीकृष्ण के वचन
¤ जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला ईंधन के गट्ठे को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही हे उद्धव, मेरी भक्ति भी समस्त पापों को भस्मसात् कर देती है।
¤ मैं, भक्तों का प्रेमास्पद आत्मा, प्रेम और भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता हूं। मेरे प्रति भक्ति निम्न से निम्नतम प्राणी को भी पवित्र कर देती है।
¤ अपने मन को संसार की वस्तुओं की ओर धावित न होने दे, क्योंकि वे स्वप्न के समान सारहीन होती हैं। अपने मन को मुझमें लगा, समर्पित हो और मेरा ध्यान कर।
¤ हे उद्धव! न तो योग, न ज्ञान, न दया, न अध्ययन, न तप, न वैराग्य मुझे उतना आकृष्ट करते हैं, जितना मेरे प्रति उत्कट भक्ति।
¤ मैं, साधुजनों का प्रिय आत्मा, केवल भक्ति से प्राप्त किया जा सकता हूँ, जो श्रद्धा से उत्पन्न होती है। मेरी भक्ति अस्पृश्यों की जन्मजात अपवित्रता को भी दूर कर देती है।
¤ मेरे जिस भक्त की वाणी सिसकियों में रुद्ध हो जाती है, जिसका हृदय पिघल जाता है और जो बिना लज्जा का विचार किये कभी जोरों से रुदन करता है, या हँसता है, या जोरों से गाता है, या नाच उठता है, वह सारे विश्व को पवित्र बना देता है।
¤ जैसे अग्नि में तपने से स्वर्ण अपनी खोट दूर कर देता है और खरा हो जाता है, वैसे ही मेरे प्रति नैष्ठिक भक्ति से मन अपनी कर्म की कामना का परिहार कर देता है और मुझे प्राप्त करता है।
¤ जिस मनुष्य का मन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता है, वह उनमें आसक्त हो जाता है, किन्तु जिस व्यक्ति का मन मेरा स्मरण करता है, वह मुझमें ही मिल जाता है।
¤ इसलिए मिथ्या वस्तुओं के विचार का परिहार कर, जो स्वप्न और भ्रम की तरह है, भक्ति से मन को परिमार्जित करते हुए मुझ पर ध्यान कर।
¤ अर्जुन ने कहा - जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपके ध्यान में लगे हुए आपके सगुण रूप की उपासना करता है और जो अक्षर एवं अव्यक्त की उपासना करता है, उन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है ?
¤ भगवान ने कहा - जो भक्तजन मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हुए अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे साकार रूप की उपासना करते हैं, मैं उन्हें योगियों में भी उत्तम योगी मानता हूँ।
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