ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी भगवान श्रीकृष्ण की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान श्रीकृष्ण के वचन
भक्तियोग
¤ यदि ध्यानयोगी भक्तियोग के द्वारा निरन्तर मेरी उपासना करे, तो उसके हृदय की समस्त कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि मैं उसके हृदय में निवास करता हूं।
¤ अतः जो योगी मेरी भक्ति करता है तथा मुझमें अपने मन को केन्द्रित रखता है, उसके लिए ज्ञान या वैराग्य के अभ्यास का विशेष कोई प्रयोजन नहीं रहता।
¤ जो कुछ कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान या परोपकार के अन्य साधनों से प्राप्त होता है, उसे मेरा भक्त सहज रूप से मेरी भक्ति के द्वारा प्राप्त कर लेता है। फिर वह भला स्वर्ग, मोक्ष या मेरे लोक की प्राप्ति के लिए क्यों चिन्ता करेगा?
¤ जिस व्यक्ति में कोई कामना नहीं है, और किसी भी वस्तु के लिए व्यग्रता नहीं है, वह मेरी भक्ति को प्राप्त करता है।
¤ जो सन्त मुझ पर उत्कट भक्ति रखते हैं, उन्हें कर्मों के सम्पादन से उपजने वाले पाप और पुण्य व्याप्त नहीं कर पाते।
¤ वे मेरी सदैव स्तुति करते हुए, दृढ़ संकल्प से प्रयास करते हुए, भक्तिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करते हुए और निरन्तर स्थिरबुद्धि रखते हुए मेरी पूजा करते हैं।
¤ जो भक्तजन अनन्य भाव से मुझमें स्थित होकर मेरा निरन्तर चिन्तन और भजन करते हैं, ऐसे मुझमें नित्य एकीभाव से युक्त जनों के योग और क्षेम को मैं स्वयं प्राप्त करा देता हूँ।
¤ हे कौन्तेय! जो भक्त श्रद्धा से युक्त होकर अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी मेरी ही पूजा करते है, किन्तु उनका यह पूजन अविधिपूर्वक होता है।
¤ वह भक्ति के द्वारा मैं जो हूँ और जिस प्रभाववाला हूँ ऐसे मेरे तत्त्व को सम्यक् रूप से जान लेता है। फिर मुझे तत्वतः जानकर वह तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।
¤ परमकल्याण की प्राप्ति के लिए अनेकानेक साधन बताये जाते हैं, जैसे प्रेम, कर्तव्य-कर्मों का सम्पादन, आत्मनिग्रह, सत्यनिष्ठा, यश, दान, तप, परोपकार, व्रत, सदाचरण आदि।
¤ परन्तु इन सब में मेरे विचार से प्रेम सर्वोत्तम है। प्रेम और भक्ति व्यक्ति को सभी बातों का विस्मरण करा देती है तथा भक्त को मुझसे युक्त कर देती है। मुझ आनन्दघन परमात्मा के प्रति प्रेम से व्यक्ति कितनी अवर्णनीय प्रसन्नता का आस्वादन करता है। एक बार उस आनन्द का उपभोग करने से सारे सांसारिक सुख शून्यवत् प्रतीत होते हैं।
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