ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है।
¤ सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है। जैसे समुद्र मत्स्यों का कारण (उत्पत्तिस्थान) है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का कारण है।
¤ जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभबढ़ता जाता है। दो माशा सोने से निष्पन्न (पूरा) होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता। (यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढ़ाव के परिणाम को सूचित करता है)
¤ कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जाएँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता (तृप्ति नहीं होती), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त हैं।
¤ इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसी के तपधर्म होता है।
¤ त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है।
¤ जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निसंग हो जाता है, अपने सुखद व दुःखद भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द विचरता है, उसके आकिचन्य धर्म होता है।
¤ मैं एक शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ। इसके अतिरिक्त अन्य परमाणुमात्र भी वस्तु मेरी नहीं है। (यह आकिंचन्य-धर्म है।)
¤ जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण से उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
¤ जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया (और) जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का (ही) नाश कर दिया।
¤ जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त मुनि की ब्रह्म (आत्मा) के लिये जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।
¤ स्त्रियों के सर्वांगों को देखते हुए भी जो इनमें दुर्भाव नहीं करता, विकार को प्राप्त नहीं होता, वही वास्तव में दुर्द्धर ब्रह्मचर्य भाव को धारण करता है।
¤ जैसे लाख का घड़ा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही स्त्री-सहवास से अनगार (मुनि) नष्ट हो जाता है।
¤ जो मनुष्य स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियाँ वैसे ही सुतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती हैं, जैसे महासागर का पार पाने वाले के लिये गंगा जैसी बड़ी नदी।
¤ जैसे शील-रक्षक पुरुषों के लिये स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही शीलरक्षिका स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं। (दोनो को एक दूसरे से बचना चाहिये।)
¤ किन्तु ऐसी भी शीलगुणसम्पत्र स्त्रियाँ हैं, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य-लोक की देवता हैं और देवों के द्वारा वन्दनीय हैं।
¤ विषयरूपी वृक्षों से प्रज्ज्वलित कामाग्नि तीनों लोक रूपी वन को जला देती है। यौवन रूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जलाती, वह धन्य है।
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