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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

संयम और अप्रमाद


¤ जो-जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं।

¤ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।

¤ अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। हे मुने! मैं उन्हें जीत कर यथान्याय (धर्मानुसार) विचरण करता हूँ।

¤ बाहरी युद्धों से क्या? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है।

¤ स्वयं पर ही विजय प्राप्त करनी चाहिए। अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।

¤ एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए - असंयम से निवृति और संयम से प्रवृत्ति।

¤ ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयों और कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए। जैसे कि लगाम के द्वारा घोडों को बलपूर्वक रोका जाता है।

¤ महागुणी मुनि के द्वारा उपशान्त किये हुए कषाय जिनेश्वर-देव के समान चरित्र वाले उस (उपशमक वीतराग) मुनि को भी गिरा देते हैं, तब सरल मुनियों का तो कहना ही क्या?

¤ ऋण को थोडा, घाव को छोटा, आग को तनिक, और कषाय को अल्प मान, विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योंकि ये थोड़े भी बढकर बहुत हो जातै हैं।

¤ क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।

¤ क्षमा से क्रोध का हनन करे, मार्दव से मान को जीते, आर्जव से माया को और संतोष से लोभ को जीते।

¤ जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी (ज्ञानी) पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।

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