ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ जीव कर्मों का बन्ध करने में स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ तो जाता है, किन्तु प्रमाद-वश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है।
¤ हा! खेद है, कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़गति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।
¤ जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।
¤ मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है।
¤ राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है।
¤ अत्यन्त तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी हानि अनिग्रहित राग और द्वेष पहुँचाते हैं।
¤ इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अत: मोक्ष ही उपादेय है।
¤ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है।
¤ मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आगमन-द्वारों आस्रवों का तथा इन्द्रियों का तीन कारण (मनसा, वाचा, कर्मणा) और तीन योग (कृत, कारित, अनुमति) से निरोध करो और कषायों का अन्त करो।
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