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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

संसार


¤¤ अध्रुव, अशाश्वत और दु:खबहुल संसार में ऐसा कौनसा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ?

¤ ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं।

¤ बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखायी नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखायी नहीं देता।

¤ नरेन्द्र-सुरेन्द्रादि (राजा-देवों के राजा) का सुख परमार्थत: दुःख ही है। वह है तो क्षणिक, किन्तु उनका परिणाम दारुण होता है। अत: उससे दूर रहना ही उचित है।

¤ खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर बहुत दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।

¤ आत्मा को दूषित करने वाले भोगामिष में निमग्न, हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ़ जीव उसी तरह (कर्मों से) बँध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी।

¤ जन्म, जरा और मरण से होनेवाले दुःख को जीव जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया (दम्भ) की गाँठ कितनी सुदृढ़ होती है।

¤ संसारी जीव के (राग-द्वेष रूपी) परिणाम होते हैं। परिणामों से कर्मबन्ध होता है। कर्मबन्ध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है - जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग- द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार जीव संसार-चक्र में परिभ्रमण करता है। उसके परिभ्रमण का हेतुभूत परिणाम (सम्यक्-दृष्टि उपलब्ध न होने पर) अनादि-अनन्त और (सम्यक्-दृष्टि के उपलब्ध होने पर) अनादि-सान्त होता है।

¤ जन्म दुःख है, बुढापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। अहो! संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।

¤ ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नही बँटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है।

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