ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अत: सतत ज्ञानाभ्यास करना।
¤ भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छटा कायोत्सर्ग तप है।
¤ उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है जो प्रवज्या धारण कर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह का तप करना चाहिए, कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिये।
¤ जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।
¤ स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक-एकाग्रता ही ध्यान है। और जो चित्त की चंचलता है उसके तीन रूप हैं भावना, अनुपेक्षा और चिन्ता।
¤ जिन्होंने अपने योग अर्थात् अपने मन-वचन- काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी-आबादी के ग्राम अथवा शून्य-अरण्य में कोई अतर नहीं रह जाता।
¤ समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों (शब्द-रूपादि) में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे।
¤ हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परमध्यान है।
¤ जैसे चिरसंचित ईन्धन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-इन्धन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।
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