ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ गुरु तथा वृद्धजनों के समक्ष आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना, उन्हें उच्च-आसन देना, गुरुजनों की भावपूर्वक भक्ति तथा सेवा करना विनय तप है।
¤ दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चरित्र-विनय, तप-विनय और औपचारिक-विनय ये विनय-तप के पाँच भेद कहे गये हैं, जो पंचमगति अर्थात् मोक्ष में ले जाते हैं।
¤ एक के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है, और एक की पूजा में सबकी पूजा होती है। (इसलिए जहाँ कहीं कोई पूज्य या वृद्धजन दिखायी दें, उनका विनय करना चाहिये।)
¤ विनय जिन शासन का मूल है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप?
¤ विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है।
¤ विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयहीन विद्या फलप्रद नहीं होती, जैसे बिना जल के धान्य नहीं उपजता।
¤ शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूत्रविसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप है।
¤ जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, श्वापद (हिंस्रपशु), राजा द्वारा व्याधित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार सम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्त तप है।
¤ परिवर्तना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तुतिमंगलपूर्वक धर्मकथा करना यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है।
¤ आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर, जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिन शास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-परसुखकारी होता है।
¤ स्वाध्यायी अर्थात् शास्त्रों का ज्ञाता साधु पाँच इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है।
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