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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

साधु


¤ परमपद की खोज में निरत साधु, सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब होते हैं।(साधु की ये चौदह उपमाऐं हैं।)

¤ केवल सिर मुँड़ाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता।

¤ (प्रत्युत) वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है।

¤ (कोई भी) गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु। अत: साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए, जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है।

¤ स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निद्रा के वश नहीं होते।

¤ साधु ममत्वरहित, निरहंकारी, निस्संग, गौरव का त्यागी तथा त्रस और स्थावर जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है।

¤ वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।

¤ वह गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त अनिदानी और बन्धन से रहित होता है।

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