ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, व्याधिग्रस्त को रोगी और चोर को चोर भी न कहे।
¤ पैशुन्य, हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, विकथा (स्त्री, राजा आदि की रसवर्धक या विकारवर्धक कथा) का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा-समिति है।
¤ आत्मवान् मुनि ऐसी भाषा बोले, जो आँखों देखी बात को कहती हो, मित (संक्षिप्त) हो, सन्देहास्पद न हो, स्वर-व्यंजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, बोलने पर भी न बोली गयी जैसी अर्थात् सहज हो और उद्वेगरहित हो।
¤ मुधादायी - निष्प्रयोजन देनेवाले - दुर्लभ हैं और मुधाजीवी - भिक्षा पर जीवन-यापन करनेवाले - भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही साक्षात् या परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते हैं।
¤ मुनिजन न तो बल या आयु बढ़ाने के लिए आहार करते हैं, न स्वाद के लिए करते हैं और न शरीर के उपचय या तेज के लिए करते हैं। वे ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करते हैं।
¤ जैसे भ्रमर पुष्पों को तनिक भी पीड़ा पहुँचाए बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है।
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