ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
¤ आहार अथवा विहार में देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा उपाधि को जानकर श्रमण यदि बरतता है, तो वह अल्पलेपी होता है अर्थात् उसे अल्प ही बन्ध होता है।
¤ ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है। उन महर्षि ने मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है।
¤ साधु लेशमात्र भी संग्रह न करे। पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहते हुए केवल संयमोपकरण के साथ विचरण करे।
¤ जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही प्रमाद को हिंसा कहा गया है।
¤ यतनाचार (विवेक या उपयोग) पूर्वक चलने, यतनाचारपूर्वक रहने, यतनाचारपूर्वक बैठने, यतनाचारपूर्वक सोने, यतनाचारपूर्वक खाने और यतनाचारपूर्वक बोलने से साधु को पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता।
¤ गमन करते समय इस बात की भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए, कि नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि इधर-उधर से चारे-दाने के लिये मार्ग में इकट्ठा हो गए हों, तो उनके सामने भी नहीं जाना चाहिए, ताकि वे भयग्रस्त न हों।
¤ (भाषा-समिति परायण साधु) किसी के पूछने पर भी अपने लिए, अन्य के लिए या दोनों के लिए न तो सावद्य अर्थात् पापवचन बोले, न निरर्थक वचन बोले और न मर्मभेदी वचन का प्रयोग करे।
¤ तथा कठोर और प्राणियों का घात करनेवाली, चोट पहुँचाने वाली भाषा भी न बोले, ऐसा सत्य-वचन भी न बोले, जिससे पाप का बन्ध होता हो।
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