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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

महाव्रत

¤ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का स्वीकार करके विद्वान् मुनि जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे।

¤ अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत-सार है।

¤ स्वयं अपने लिए तथा दूसरों के लिए क्रोधादि या भय आदि के वश होकर हिंसात्मक असत्य-वचन न तो स्वयं बोलना चाहिए न दूसरों से बुलवाना चाहिए। यह दूसरा सत्यव्रत है।

¤ ग्राम, नगर अथवा अरण्य में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देने वाले साधु के तीसरा अचौर्यव्रत होता है।

¤ सचेतन अथवा अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दाँत साफ करने की सींक तक भी साधु बिना दिये ग्रहण नहीं करता।

¤ मैथुन-संसर्ग अधर्म का मूल है, महान् दोषों का समूह है। इसीलिये ब्रह्मचर्यव्रती निर्ग्रंथ-साधु, मैथुन- सेवन का सर्वथा त्याग करता है।

¤ वृद्धा, बालिका और युवती-स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों को देखकर उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री-कथा से निवृत्त होना - चौथा ब्रह्मचर्य व्रत है। यह ब्रह्मचर्य तीनों लोकों में पूज्य है।

¤ निरपेक्षभावनापूर्वक चारित्र का भार वहन करनेवाले साधु का बाह्याभ्यन्तर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना, पाँचवा परिग्रह-त्याग नामक महाव्रत कहा जाता है।

¤ जब भगवान् अरहंतदेव ने मोक्षाभिलाषी को 'शरीर भी परिग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है।

¤ (फिर भी) जो अनिवार्य है, असंयमी जनों द्वारा अप्रार्थनीय है, ममत्व आदि पैदा करनेवाली नही हैं, ऐसी वस्तु ही साधु के लिए उपादेय है। इसके विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उसके लिये ग्राह्य नहीं है।

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