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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

¤ स्व-स्त्री में संतुष्ट ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक को विवाहित या अविवाहित स्त्रियों से सर्वथा दूर रहना चाहिए। अनंग-क्रीड़ा नहीं करनी चाहिए। अपनी संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह आदि कराने में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए। काम-सेवन की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहिए।

¤ अपरिमित-परिग्रह अनन्त-तृष्णा का कारण है, वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का मार्ग है। अतः परिग्रह-परिमाणाणुव्रती विशुद्धचित्त श्रावक को क्षेत्र- मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये।

¤ प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प-कर्मबंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य करने र्से अधिक कर्मबंध होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही (अमर्यादित रूप से) की जा सकती है।

¤ चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं - भोगों का परिमाण, सामायिक, अतिथि संविभाग और प्रोषधोपवास।

¤ आहार, औषध, शास्त्र और अभय के रूप में दान चार प्रकार का कहा गया है। उपासकाध्ययन (श्रावणकार) में उसे देने योग्य कहा गया है।

¤ जो गृहस्थ, मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।

¤ मृत्यु-भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ही अभयदान है। यह अभयदान सब दानों का शिरोमणि है।

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