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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

¤ वह इस लोक और परलोक में अनासक्त, बसूले से छीलने या चन्दन का लेप करने पर तथा आहार मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है - हर्ष-विषाद नहीं करता।

¤ भूख, प्यास, दुःशय्या (ऊँची-नीची पथरीली भूमि), ठण्ड, गर्मी, अरति, भय आदि को बिना दुःखी हुए सहन करना चाहिए। क्योंकि दैहिक दुःखों को समभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है।

¤ समतारहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विचित्र उपवास, अध्ययन और मौन व्यर्थ है।

¤ प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयत भाव से ग्राम और नगर में विचरण कर। शान्ति का मार्ग बढ़ा। हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।

¤ (संयम मार्ग में) वेश प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह असंयमी जनों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विष नहीं मारता?

¤ (फिर भी) लोक-प्रतीति के लिये नाना-तरह के विकल्पों की, वेश आदि की परिकल्पना की गयी है। संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और 'मैं साधु हूँ इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है।

¤ भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्यपरिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य-त्याग निष्फल है।

¤ संघस्थित साधु ज्ञान का भागी (अधिकारी) होता है, दर्शन और चरित्र में विशेषरूप से स्थिर होता है। वे धन्य हैं जो जीवन-पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते।

¤ संघ भयभीत व्यक्तियों के लिये आश्वासन निश्चल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतग्रहतुल्य, अविषमदर्शी होने के कारण माता- पिता-तुल्य, तथा सब प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, इसलिये तुम संघ से मत डरो।

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