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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

¤ जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वत: भिन्न तथा ज्ञायक- भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है।

¤ जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देहकर्मातीत) अनन्य (अन्य से रहित), अविशेष (विशेष से रहित) तथा आदि-मध्य और अन्तविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वही समग्र जिन शासन को देखता है।

¤ जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब (जगत्) को जानता है। जो सब को जानता है, वह एक को जानता है।

¤ (अत. हे भव्य!) तू इस ज्ञान में सदा लीन रह। इसी में सदा संतुष्ट रह। इसी से तृप्त हो। इसी से तुझे उत्तम सुख (परमसुख) प्राप्त होगा।

¤ चरित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है, जैसे कि अंधे के आगे लाखों करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।

¤ जो परिग्रह-मुक्त तथा अनन्यमन होकर आत्मा को ज्ञानदर्शनमय स्वभावरूप जानता-देखता है, वह जीव स्वकीय-चरिताचारी है।

¤ जो (इस प्रकार के) परमार्थ में स्थित नहीं है, उसके तपक्षरण या व्रताचरण आदि सबको सर्वज्ञदेव ने बालपन और बालव्रत कहा है।

¤ जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है और (पारणा में) कुश के अग्रभाग जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।

¤ वास्तव में चरित्र ही धर्म है। इस धर्म को शमरूप कहा गया है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है।

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