ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
त्रि-रत्न
¤ जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि (सम्यक्) दर्शन, ज्ञान, चरित्र मोक्ष का मार्ग है। साधुओं को इसका आचरण करना चाहिये। यदि वे स्वाश्रित होते हैं, तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बन्ध होता है।
¤ जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति के हेतु (अवश्य) हैं, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।
¤ बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों बेड़ियों ही बाँधती हैं। इसी प्रकार जीव को उसके शुभ- अशुभ कर्म बाँधते हैं।
¤ अत: (परमार्थतः) दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि कुशील (कर्मों) के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।
¤ (तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं अच्छा है। (इसी न्याय से लोक में पुण्य की सर्वथा उपेक्षा उचित नहीं।)
¤ धर्म आदि (छह द्रव्य) तथा तत्वार्थ आदि का श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वों का ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। तप में प्रयत्नशीलता सम्यक्चरित्र है। यह व्यवहार मोक्ष-मार्ग है।
¤ (मनुष्य) ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है। चरित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है।
¤ (तीनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसीलिये कहा है, कि) चरित्र के बिना ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिंग का ग्रहण और संयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है।
¤ सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चरित्रगुण नहीं होता। चरित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनन्त आनन्द) नहीं होता।
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