ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
आत्मा
¤ जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है: बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं: अर्हत् और सिद्ध।
¤ इन्द्रियसमूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है। आत्मसंकल्प-देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अन्तरात्मा है। कर्म कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है।
¤ केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को जाननेवाले स-शरीरी जीव अर्हत् हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञानशरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं।
¤ जिनेश्वरदेव का यह कथन है, कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड्कर अन्तरात्मा में आरोहण.कर परमात्मा का ध्यान करो।
¤ शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चैतन्यगुणवाला, अशब्द, अलिङ्गग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थानरहित है।
¤ आत्मा मन, वचन और कायरूप त्रिदण्ड से रहित, निर्द्वन्द्व - अकेला, निर्मम - ममत्वरहित, निष्कल - शरीररहित, निरालम्ब - परद्रव्यावलम्बन से रहित, वीतराग, निदोंष मोहरहित तथा निर्भय है।
¤ वह (आत्मा) निर्ग्रन्थ (ग्रन्थिरहित) है, नीराग है, निःशल्य (निदान, माया और मिथ्यादर्शनशल्य रहित) है, सर्वदोषों से निर्मुक्त है, निष्काम (कामनारहित) है और नि:क्रोध, निर्मान तथा निर्मद है।
¤ मैं (आत्मा) न शरीर हूँ? न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण हूँ। मैं न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न कर्ता का अनुमोदक ही हूँ।
¤ मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मंम इन सब (परकीय भावों) का क्षय करता हूँ।
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