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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554
आईएसबीएन :9781613012659

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भगवान महावीर के वचन

अहिंसा

¤ ज्ञानी होने का सार यही है, कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। इतना जानना ही पर्याप्त है, कि अहिंसामूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिंसा का विज्ञान है।

¤ सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्णन करते हैं।

¤ जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है - ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो।

¤ जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अत: आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का परित्याग किया है।

¤ जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आशा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है।

¤ जिनेश्वरदेव ने कहा है - राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और उसकी उत्पत्ति हिंसा है।

¤ हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बन्ध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे।

¤ आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है - यह सिद्धान्त का निश्चय है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।

¤ मुनि ने कहा : 'पार्थिव! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है।'

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