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भगवान बुद्ध की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9553
आईएसबीएन :9781613012871

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भगवान बुद्ध के वचन

उपदेशक

तथागत ने अपने शिष्यों से कहा:-

¤ जब मेरा तिरोधान हो जाए और मैं तुमको फिर सम्बोधित न कर सकूँ और धार्मिक प्रवचनों के द्वारा तुम्हारे मन को उन्नत न कर सकूँ, तब तुम मेरे स्थान पर सत्य का उपदेश देने के लिए अपने में से कुल और शिक्षा में अच्छे व्यक्तियों का चुनाव कर लेना।

¤ और उन व्यक्तियों को तथागत का परिधान धारण करने देना, उन्हें तथागत के निवास में प्रवेश करने तथा तथागत के आसन पर आसीन होने देना।

¤ अलौकिक सहिष्णुता और धैर्य तथागत का परिधान है। परोपकार और सर्वभूतों के प्रति प्रेम ही उसका आवास है। सद्धर्म के विशेष अनुपयोग की धारणा ही तथागत का आसन है।

¤ उपदेशक को संकोचरहित मन से सत्य का प्रतिपादन करना चाहिए। उसमें प्रवर्तन की शक्ति होनी चाहिए, जो सद्गुण और अपने संकल्प के प्रति दृढ़ निष्ठा पर आधारित हो।

¤ उपदेशक को अपने उचित दायरे में ही रहना चाहिए और अपनी गतिविधियों में नियमित होना चाहिए। उसे अपने मिथ्या अहंकार को तुष्ट करने के लिए बड़े लोगों की संगति नहीं खोजनी चाहिए। उसे ऐसे व्यक्तियों की संगति भी नहीं करनी चाहिए, जो छिछोरे और अनैतिक हैं। प्रलोभन से घिरने पर उसे निरन्तर बुद्ध का चिन्तन करना चाहिए और वह विजयी होगा।

¤ जो भी सद्धर्म-श्रवण करने के लिए आएँ, उपदेशक उनका उदारता से स्वागत करे तथा उसके प्रवचन आत्म-स्तुति से रहित हों।

¤ उपदेशक को न तो दूसरों का छिद्रान्वेषण करना चाहिए, न उसे अन्य उपदेशकों की निन्दा करनी चाहिए और न मिथ्यापवाद कहना चाहिए, न ही कटु शब्दों का व्यवहार करना चाहिए। वह भर्त्सना करने तथा आचरण की निन्दा करने के लिए अन्य शिष्यों के नामों का उल्लेख न करे।

¤ उपदेशक को स्फूर्ति और उल्हासपूर्ण आशा से परिपूर्ण होना चाहिए। उसे कभी थकना नहीं चाहिए और कभी भी अन्तिम सफलता से निराश नहीं होना चाहिए।

¤ उसे झगड़ालू विवादों में हर्षित नहीं होना चाहिए और न उसे अपनी प्रतिभा की उच्चता सिद्ध करने के लिए विरोधाभासों में ही पड़ना चाहिए, प्रत्युत उसे स्थिर एव शांत होना चाहिए।

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