ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
¤ हे भिक्षु, तू अपना सिर सम्यक् विचारों के शिरस्त्राण से ढक ले तथा दृढ़ संकल्प लेकर पाँच कामनाओं के विरुद्ध युद्ध कर।
¤ जब व्यक्ति स्त्री के सौन्दर्य से भ्रमित हो जाता है और मन चौंधिया जाता है, तब काम मनुष्य के हृदय पर बादलों सा छा जाता है।
¤ अपने भीतर पाशविक विचार जगाने या स्त्री की ओर वासनापूर्ण इच्छा से देखने की अपेक्षा प्रदग्ध लोह शलाका से आँखों को निकाल फेंकना अधिक अच्छा है।
¤ शरीर का संयम अच्छा है, वाणी का संयम अच्छा है, मन का संयम अच्छा है, सर्वत्र संयम अच्छा है। जो संन्यासी सभी में संयम करता है, वह समस्त प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।
¤ वह व्यक्ति, जिसके हाथ, पैर, वाणी और मस्तिष्क संयमित हैं, वह व्यक्ति, जिसे ध्यान में आनन्द आता है और जो प्रशान्त है, वह व्यक्ति, जो एकाकी और आत्मतुष्ट है; उसे वे भिक्षु कहते हैं।
¤ जिसका शरीर और मन के प्रति किसी भी प्रकार का 'मैं और मुझे' का भाव नहीं है, जो उसके लिए शोक नहीं करता जो उसके पास नहीं है, वही विस्तृत भिक्षु कहलाता है।
¤ जो भिक्षु एकान्त स्थान में वास करता है, जिसने अपने मन को स्थिर कर लिया है, जो धर्म को स्पष्ट रूप से देखता है, वह मनुष्यों से परे के आनन्द का उपभोग करता है।
¤ उसे अपने मार्ग में अपनत्वपूर्ण तथा व्यवहार में परिमार्जित होने दो; आनन्द से भरकर वह दुःख को समाप्त कर देगा।
¤ जिस प्रकार चम्पक की लता अपने मुरझाए हुए फूलों को बिखरा देती है, वैसे ही, हे भिक्षुओ! तुम्हें काम और द्वेष को समग्र रूप से बिखरा देना चाहिए।
¤ जो भिक्षु अत्यन्त अल्पावस्था में बुद्ध के उपदेशों में स्वयं को समर्पित कर देता है, वह इस संसार को ठीक वैसे ही आलोकित करता है, जैसे बादलों से मुक्त चन्द्रमा।
¤ जैसे कुश को गलत ढंग से पकड़ने से हथेली कट जाती है, उसी प्रकार यदि वीतरागी जीवन त्रुटिपूर्ण ढंग से बिताया जाय, तो वह व्यक्ति को नरक में ढकेल देता है।
वे साधु जो हानिरहित हैं,
जिनका शरीर सदैव संयमित है,
मृत्युहीन स्थिति को प्राप्त करते हैं,
जहाँ जाकर
वे कभी शोक नहीं करते।
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