ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
¤ मन का वारण कठिन होता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म, त्वरित तथा आकांक्षित स्थान पर तुरन्त दौड़ जानेवाला होता है। ऐसे मन का नियन्त्रण करना उत्तम है। संयमित मन आनन्द को उत्पन्न करता है।
¤ जिसका मन स्थिर नहीं है, जो सद्धर्म से अवगत नहीं है, जिसकी आस्था चंचल है, ऐसे व्यक्ति की प्रज्ञा कभी भी पूर्ण नहीं होती।
¤ यह मन दूरगामी, अकेला विचरनेवाला, अशरीरी और गुहाशयी (चेतना का पीठ) है। जो इसका संयम करते हैं, वे ही मार (काम) के बन्धन से मुक्त होते हैं।
¤ जितनी भलाई माता-पिता या दूसरे भाई-बन्धु नहीं कर सकते, उससे अधिक भलाई ठीक मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है और वह व्यक्ति का उन्नयन करता है।
¤ जितनी हानि शत्रु शत्रु की और वैरी वैरी की करता है, उससे अधिक बुराई झूठे मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है।
¤ अनभ्यास ध्यान की अपवित्रता है, अस्वच्छता शरीर की अपवित्रता है, प्रमाद इन्द्रियों की अपवित्रता है और चंचलता मन की अपवित्रता है।
¤ जो व्यक्ति जाग्रत् है, जिसका मन तृष्णा से रहित है, उस व्यक्ति के लिए कोई भय नहीं।
¤ सभी प्रकार की बुराइयों से दूर रहना, सत्कर्मों को सम्पन्न करना तथा, अपने मन को शुद्ध करना - यही बुद्धों का मत है।
¤ मन का उन्नयन करो और दृढ़ संकल्प के साथ निष्ठापूर्वक श्रद्धा की खोज करो; सदाचरण के नियमों का उल्लंघन मत करो, तुम्हारा आनन्द बाहरी वस्तुओं पर आधारित न होकर तुम्हारे अपने मन पर निर्भर हो। इस प्रकार तुम्हारा यश युगों तक बना रहेगा और तुम तथागत के स्नेह के पात्र होंगे।
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