ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
मन
¤ मन सभी प्रवृत्तियों का अगुवा है। मन समस्त इन्द्रियों की शक्तियों से उत्कृष्ट है। सभी सापेक्ष विचार मन में ही पैदा होते हैं।
¤ मन सभी संवेदनाओं का अग्रगामी है। इस भौतिक विश्व के समस्त तत्वों की अपेक्षा मन सबसे सूक्ष्म है। समस्त विषयभूत चेतना मन में ही उत्पन्न होती है। यदि कोई शुद्ध मन से बोलता या काम करता है, तो आनन्द उसकी छाया के समान उसका अनुसरण करता है।
¤ ''दूसरे मुझसे घृणा करते हैं, अविश्वनीय समझते हैं, मेरे बारे मंो गलतफहमी होती है तथा मुझे धोखा दिया जाता है'' जो इस प्रकार के विचारों का पोषण अपने मन में करता है, वह उन कारणों से मुक्त नहीं हो सकता, जो उस पर अपना विध्वंसात्मक प्रभाव डालते हैं।
¤ जिसने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह वस्तुत: उस व्यक्ति से भी महान् विजेता है, जिसने यद्यपि स्वयं से हजार गुना अधिक शक्तिशाली हजार शत्रुओं को पराजित तो किया है, पर जो अपनी इन्द्रियों का दास बना हुआ है।
¤ जिसका मन बाहरी सौन्दर्य और वैभवों की खोज में भटकता है, जो अपनी इन्द्रियों पर स्वामी के समान नियन्त्रण रखने में समर्थ नहीं है, जो अशुद्ध भोजन खाता है, जो आलसी है तथा नैतिक साहस से हीन है, उस व्यक्ति को अज्ञान और दुःख ठीक वैसे ही अभिभूत कर लेते हैं, जैसे आँधी सूखे वृक्ष को तहस-नहस कर देती है।
¤ जिस प्रकार वर्षा की बूँदें उस घर में टपकती हैं, जिसकी छप्पर ठीक नहीं होती, इसी प्रकार आसक्ति, घृणा और विभ्रम उस मन में प्रवेश करते हैं, जो आत्मनिष्ठ ध्यान से विरत होता है।
¤ जिसका मन काम से लिप्त नहीं है, जो घृणा से प्रभावित नहीं है, जिसने शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग किया है, ऐसे जागरूक व्यक्ति को कोई भय नहीं होता।
¤ जो हृदय अज्ञान के पथ का अनुगमन करता है वह व्यक्ति को उसके सबसे घृणित एवं कट्टर शत्रु की अपेक्षा अधिक हानि पहुँचाता है।
¤ जिस प्रकार तीर बनानेवाला तीर को सीधा करता है, ठीक वैसे ही विवेकी व्यक्ति अस्थिर, चंचल, दुर्रक्षित और दुर्नियन्त्रित मन को सीधा कर लेता है।
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