ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
अज्ञात शास्ता
तथागत ने आनन्द (अपने प्रमुख शिष्य) से कहा -
आनन्द ! सभाओं के भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, जैसे- भद्रजनों की, ब्राह्मणों की, गृहस्थों की, भिक्षुओं की तथा अन्य लोगों की सभा। जब भी मैं किसी सभा में प्रवेश करता हूँ, तो मैं वहाँ बैठने के पहले स्वयं को अपने श्रोताओ के रंग में रंग लेता हूँ और अपनी वाणी को उनकी वाणी के समान बना लेता हूँ। तदुपरान्त मैं धार्मिक प्रवचन के द्वारा उन्हें उपदेश देता, स्फूर्त करता और हर्षित करता हूँ।
¤ मेरा मत सागर के समान है तथा उसमें भी वैसे ही आठ विलक्षण गुण हैं।
¤ मेरा मत और सागर दोनों क्रमश गहरे होते जाते हैं।
¤ परिवर्तनों के मध्य भी दोनों अपना वैशिष्ट्य बनाये रखते हैं।
¤ मृत शरीरों को दोनों सूखी धरती पर निकाल फेकते हैं।
¤ जिस प्रकार बड़ी नदियाँ सागर में गिरकर अपने नाम का परित्याग कर देती हैं और तदुपरान्त महासागर के रूप में जानी जाती हैं, उसी प्रकार सभी जातियों के लोग जब अपने कुल का परित्याग कर संघ में प्रविष्ट होते हैं, तब वे भाई बन जाते हैं और शाक्यमुनि के रूप में जाने जाते हैं।
¤ सागर सभी नदियों का और बादलों से होनेवाली वर्षा का लक्ष्य है, पर न तो यह कभी भरकर छलकता है और न कभी खाली ही होता है, इसी प्रकार धर्म भी कोटि-कोटि मनुष्यों के द्वारा स्वीकार किया जाता है, पर न तो यह कभी बढ़ता है और न ही घटता है।
¤ जिस प्रकार महासागर का केवल एक ही स्वाद, नमक का ही स्वाद होता है, उसी प्रकार मेरे मत की केवल एक ही सुवास है और वह है मुक्ति की सुवास।
¤ सागर और धर्म दोनो रत्नों, मोतियों और मणियों से परिपूर्ण होते हैं, और दोनों में महानतम प्राणियों का निवास होता है।
¤ मेरा मत पवित्र है तथा इसमें सभ्य और असभ्य, धनी और निर्धन के बीच कोई भेदभाव नहीं होता।
¤ मेरा मत जल के समान है, जो बिना भेदभाव के सब कुछ परिमार्जित करता है।
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