ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
¤ उसे सम्पूर्ण संसार के प्रति सदिच्छा विकसित करने दो, एक ऐसे मन का विकास करने दो जो सीमातीत (और बन्धुत्वपूर्ण) हो और जो ईर्ष्या और घृणा से विरहित होकर ऊपर, नीचे और आरपार निर्विघ्न रूप से परिव्याप्त हो जाए।
¤ जिस प्रकार एक माता अपने जीवन को भी दाँव में लगाकर अपने पुत्र की, अपने एकमात्र पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार जिसने सत्य को जान लिया है, उसे समस्त प्राणियों के मध्य अपनी सदिच्छा का अपरिमित विकास करने दो।
¤ उसे सारे संसार के प्रति ऊपर, नीचे, चारों ओर निर्दोष रूप से, विभेदकारी या पक्षपात की भावना का मिश्रण किये बिना, अपनी सदिच्छा का विकास करना चाहिए।
¤ परोपकारी व्यक्ति से सभी प्रेम करते हैं, उसकी मित्रता को बहुमूल्य माना जाता है, मृत्यु के समय उसका हृदय आनन्द से परिपूर्ण होकर विश्राम करता है, क्योंकि वह प्रायश्चित्त का दुख नहीं भोगता, उसे अपने पुरस्कार का विकसित फूल तथा परिपक्व फल प्राप्त होता है।
¤ इस तत्व को समझना कठिन है कि अपना भोजन दूसरों को देकर हम अधिक बल प्राप्त करते हैं, दूसरों को वस्त्र देने से हमें अधिक सुन्दरता की प्राप्ति होती है, पवित्रता और सत्य के प्रतिष्ठानों की स्थापना करने से हमें महान् कोषों की प्राप्ति होती है।
¤ जिस प्रकार एक वीर योद्धा रणक्षेत्र को प्रस्थान करता है, इसी प्रकार वह व्यक्ति भी होता है, जिसमें देने की क्षमता होती है। स्नेह और करुणा से परिपूर्ण होकर वह श्रद्धापूर्वक दान करता है तथा समस्त घृणा, ईर्ष्या और क्रोध का परित्याग कर देता है।
¤ परोपकारी व्यक्ति मुक्ति के पथ को पा लेता है। वह एक ऐसे व्यक्ति के समान होता है, जो इसलिए बिरवा लगाता है ताकि आनेवाले वर्षों में उसके लिए सुरक्षित रूप से आश्रय, फूल और फल प्राप्त हो सकें। ठीक ऐसा ही फल परोपकार का भी होता है, ठीक ऐसा ही आनन्द उसे प्राप्त होता है, जो जरूरतमन्द की सहायता करता है, ठीक ऐसा ही महान निर्वाण के सम्बन्ध में भी है।
¤ प्रेम का जो पाश तुम्हें अपने खोये पुत्र के साथ बाँधता है, यह समान तीव्रता के साथ तुम्हें अपने समस्त बन्धुओं के साथ बाँधे। और तब अपने पुत्र के स्थान पर तुम सिद्धार्थ से भी महान् व्यक्ति प्राप्त करोगे, तुम बुद्ध को, सत्य के उपदेष्टा को, धर्म के प्रचारक को प्राप्त करोगे और निर्वाण की प्रशान्ति तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट होगी।
¤ दयालुता के कार्यों के निरन्तर सम्पादन से ही अमरत्व तक पहुँचा जा सकता है। करुणा और परोपकार के द्वारा पूर्णता की उपलब्धि होती है।
¤ सबसे बड़ी आवश्यकता स्नेहपूर्वक हृदय की है।
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