ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
करुणा
¤ उससे कहो, मैं किसी प्रतिदान की आशा नहीं करता, न ही मैं स्वर्ग में पुनर्जन्म चाहता हूँ - परन्तु मैं मनुष्यों के कल्याण की खोज करता हूँ उन लोगों को वापस लाना चाहता हूँ जो पथविचलित हो गये हैं, उन लोगों को आलोकित करना चाहता हूं जो भ्रम की निशा में जी रहे हैं, संसार से समस्त पीड़ा और समस्त दुःख को निकालना चाहता हूँ।
¤ मै स्वयं के कल्याण के लिए विश्व के हित-साधन का प्रयास नहीं करता, मैं हित से प्रेम करता हूँ क्योंकि यह मेरी आकांक्षा है कि मैं प्राणिमात्र के आनन्द के लिए कार्य करूँ।
¤ तुम्हारे कष्टों का कारण जो भी हो, पर दूसरों को आहत न करो।
¤ कर्तव्य के पथ का अनुसरण कर, अपने भाइयों के प्रति स्नेह प्रदर्शित कर और उन्हें कष्टों से मुक्त कर।
¤ जो भी प्राणियों को चोट पहुँचाए या उनका अहित करे, जिसके मन में किसी भी प्राणी के प्रति सहानुभूति न हो, उसे जातिच्युत के रूप में जानो।
¤ समस्त प्राणियों के प्रति कल्याण-भावना ही सच्चा धर्म है। समस्त जीवित प्राणियों के प्रति अपने हृदय में अनन्त कल्याण-भावना का पल्लवन करो।
¤ तुम्हारा उत्साह न हो, तुम्हारे अधरों से कोई भी बुरे वचन न निकलें, तुम सदा परोपकारी बने रहो, तुम्हारा हृदय प्रेम से परिपूर्ण तथा गुप्त द्धेष से रहित हो, और तुम इन दुष्कर्मियों को भी अपने प्रेमपूर्ण विचारों से - उदार, गम्भीर, सीमाहीन तथा क्रोध और घृणा से पूर्णतया रहित विचारों से आप्लावित कर दो। मेरे शिष्यो! तुम्हें यह भी करना होगा।
¤ सद्धर्म के प्रमुख लक्षण हैं - सदिच्छा, प्रेम, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, अनुभूति की उदात्तता और दया।
¤ सभी प्राणी आनन्द की आकांक्षा करते हैं, इसलिए समस्त प्राणियों तक अपनी करुणा का प्रसार करो।
¤ इस संसार में घृणा को घृणा के द्वारा नहीं रोका जा सकता। मात्र प्रेम के द्वारा ही उसका निरोध होता है। यह सनातन नियम है।
¤ धैर्य के साथ सहनशीलता सबसे ऊँची तपस्या है। बुद्धों ने कहा है निर्वाण सर्वोपरि है। वह विरागी नहीं है जो दूसरों को कष्ट देता है और न वह तपस्वी ही है, जो दूसरों का उत्पीड़न करता है।
¤ जो दूसरों को दुःख पहुंचाकर स्वयं आनन्द पाना चाहता है, वह घृणा से नहीं बच सकता, क्योंकि वह स्वयं को घृणा के पाशों में फँसा लेता है।
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