ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
¤ शरीर-पीड़न कष्टकारी, व्यर्थ और अलाभकर होता है। और यदि कोई व्यक्ति अपनी कामाग्नि को बुझाने में सफल नहीं हुआ, तो वह एक कष्टग्रस्त जीवन बिताकर अहं-भाव से कैसे मुक्त हो सकता है?
¤ जब तक अहं-भाव बना हुआ है, जब तक उसमें सांसारिक या पारलौकिक सुखों की वासना विद्यमान है, तब तक सारा शरीर पीड़न व्यर्थ है। परन्तु जिसमें अहं-भाव नष्ट हो गया है, वह काम से मुक्त होता है। ऐसा व्यक्ति न तो सांसारिक सुखों की कामना करता है, न स्वर्गिक सुखों की। तथा अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से वह अपवित्र नहीं होता। उसे शरीर की आवश्यकता के अनुरूप खाने और पीने दो।
¤ कमल के चारों ओर जल होता है, किन्तु उसकी पँखुड़ियाँ नहीं भीगती। इसके विपरीत, सब प्रकार की इन्द्रियपरता हतवीर्य करनेवाली होती है। इन्द्रियपर व्यक्ति अपने आवेगों का दास होता है तथा सुखेच्छा पतनकारी और प्राकृत होती है।
¤ किन्तु जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करना पाप नहीं है। शरीर को स्वस्थ बनाये रखना कर्तव्य है, अन्यथा हम विवेक के दीप को जलाकर और अपने मन को सशक्त एवं शुद्ध नहीं रख सकेंगे।
¤ हे भिक्षुओ। यही 'मध्यम मार्ग' है जो दोनों अतिवादों से रहित है।
तथागत ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक अपने शिष्यों से संलाप किया। उन्होंने शिष्यों की त्रुटियों के प्रति करुणा प्रकट करते हुए उनके प्रयासों की निष्फलता की ओर संकेत किया। शास्ता के प्रेरक उपदेशों के उत्ताप से शिष्यों के हृदय को जड़ीभूत करनेवाली दुष्कामनाओं की हिमशिला विगलित हो गयी।
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