ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
सारनाथ में प्रथम प्रवचन
पाँच भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए भगवान् ने कहा-
¤ तथागत को उसके नाम से मत पुकारो, न उसे 'मित्र' ही कहो, क्योंकि वह बुद्ध है। बुद्ध करुणापूर्ण हृदय के साथ समस्त प्राणियों को समान दृष्टि से देखता है और इसलिए वे उसे 'पिता' कहते हैं। पिता का अनादर करना अनुचित है, उसकी अवमानना करना पाप है।
¤ तथागत तितिक्षा के द्वारा निर्वाण की खोज नहीं करता, किन्तु इस कारण तुम्हें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि वह सांसारिक सुखों में लीन है और न यह कि वह प्रचुरता में जी रहा है। तथागत ने 'मध्यम मार्ग' की प्राप्ति की है।
¤ जो व्यक्ति भ्रम से मुक्त नहीं है, वह न तो मछली छोड़ने से पवित्र हो सकता है और न मांस छोड़ने से, न नग्न घूमने से और न मुण्डित होने से, न जटा धारण करने से और न वल्कल पहिनने से, न भस्म रमाने से और न ही अग्नि को आहुति देने से।
¤ जिस व्यक्ति के भ्रम का नाश नहीं हुआ है, वह वेदपाठ से पुरोहितों को दान करने या देवताओं को बलि देने से, उत्ताप या शीत के द्वारा आत्मपीड़न करने से और अमर होने के लिए किये जानेवाले इस प्रकार के अनेक कष्टमय विधानों को सम्पन्न करने से पवित्र नहीं हो सकता।
¤ मांस-भक्षण से अपवित्रता का जन्म नहीं होता प्रत्युत क्रोध, प्रमाद, हठ, व्यभिचार, छल, ईर्ष्या, आत्मप्रशंसा, दूसरों की निन्दा, उद्धतता और अशुभ अभिप्रायों से अपवित्रता जन्म लेती है।
¤ हे भिक्षुओ! मैं तुम्हें उस मध्यम मार्ग की शिक्षा देता हूँ, जो दोनों अतिवादों से रहित है। कष्टों के द्वारा दुर्बल भक्त के मन में भ्रम एवं रुग्ण विचारों की उत्पत्ति होती है। आत्मपीड़न से सांसारिक ज्ञान की भी वृद्धि नहीं होती, तब उससे भला इन्द्रियों पर विजय कैसे पायी जा सकती है!
¤ जो अपने दीपक में जल भरता है, वह अन्धकार को दूर नहीं कर सकता और सड़ी लकड़ी से अग्नि उत्पन्न करना चाहता है, वह असफल होता है।
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