ई-पुस्तकें >> भगवान बुद्ध की वाणी भगवान बुद्ध की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान बुद्ध के वचन
धर्मचक्रप्रवर्तन
भगवान् तथागत ने सारनाथ में सद्धर्म के चक्र का प्रवर्तन किया और पाँच भिक्षुओं के समक्ष अमरता के द्वार को अनावृत्त करते हुए तथा निर्वाण के आनन्द को प्रदर्शित करते हुए उपदेश देना प्रारम्भ किया। और जब भगवान ने अपना प्रवचन प्रारम्भ किया, तो सम्पूर्ण विश्व आनन्दातिरेक से पुलकित हो उठा।
बुद्ध ने कहा -
¤ विशुद्ध आचार के नियम ही चक्र-दण्ड है, इन चक्र-दण्डों की समान दीर्घता ही न्याय है, विवेक ही लोहवलय है; विनम्रता और चिन्तनशीलता ही वे नाभिक हैं; जिनमें सत्य की अटल धुरी जमी हुई है।
¤ वह जो दुःख के अस्तित्व, दुःख के कारण, दुःख के निदान और मुक्तिगामी आर्य अष्टांगिक मार्ग को सम्यक् प्रज्ञा से जानता है, वह चार आर्यसत्यों को हृदयंगम कर लेता है। ऐसा व्यक्ति सम्यक् पथ पर विचरण करता है।
¤ सम्यक् दृष्टि उसके पथ को प्रकाशित करनेवाली मशाल होगी। सम्यक् उद्देश्य उसके पथदर्शक होंगे। सम्यक् वचन पथ में निवास करने के लिए उसके आश्रय-स्थल होंगे। उसकी पद-गति सीधी होगी, क्योंकि यह सम्यक् आचार है। जीविका उपार्जन की विधि ही उसका अनुरंजन होगी। प्रयत्न उसके चरण होंगे, सम्यक् विचार उनकी साँस होगा और शान्ति उसके पदचिन्हों का अनुसरण करेगी।
फिर भगवान् ने अहंकार की अस्थिरता की व्याख्या की -
¤ जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, वह फिर लीन होगा। अहं-भाव के सम्बन्ध में सारी चिन्ताएँ निष्फल हैं अहंकार तो मृगतृष्णा के समान है और इससे सम्बन्धित सारे मनस्ताप क्षणिक हैं। वे तो उस सपने के समान विलीन हो जाएँगे, जो जागने पर टूट जाता है।
¤ जो जाग गया है, वह भय से मुक्त है, वह बुद्ध बन गया है। वह अपनी सारी चिन्ताओं, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और अपने दुःखों की भी निस्सारता को जानता है।
¤ वही सुखी है, जिसने स्वार्थपरायणता को जीत लिया है, वही सुखी है, जिसने शान्ति प्राप्त कर ली है और वही सुखी है, जिसने सत्य को पा लिया है।
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