उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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हमारी गाड़ी खटाखट चली जा रही थी। हम भरतपुर पहुँच गये थे। माणिकलाल की कथा इतनी रोचक थी कि समय व्यतीत होने का ज्ञान ही नहीं रहा। सायंकाल की चाय लेने का समय हो गया था। मैंने बैरा से मथुरा स्टेशन पर चाय लाने के लिए कह दिया।
माणिकलाल ने कहा, ‘‘यदि मैं वे सब बातें बताने लगूँ जो मैंने उस समय देखीं और उनको देखकर जो प्रतिक्रिया मेरे मन पर हुई थी तो वह एक दूसरा महाभारत ग्रन्थ बन जायेगा। इस कारण मैं केवल इतना बताना चाहता हूँ कि उस समय जहाँ भारतवर्ष में राजा और प्रजा नास्तिक और स्वार्थरत होते जा रहे थे, वहाँ देवलोक में तो सबकुछ पूर्ण विनाशाभिमुख हो रहा था।’’
‘‘मुझे पतित करने का मेनका ने बहुत यत्न किया। परन्तु मैं समझ रहा था कि यह मेरी परीक्षा हो रही है और उसके सब यत्नों को विफल करता रहा। इस प्रकार लगभग पन्द्रह दिनों में मैं मेनका का चित्र समाप्त कर सका। उसमें मैंने अपने पूर्ण चातुर्य का परिचय दिया था। भगवान् की कृपा से और मेरे परिश्रम से चित्र बहुत ही सुन्दर बन गया था। ऐसा प्रतीत होता था कि मेनका को नग्न होने में संकोच हो रहा है, मानो उसे किसी पुरुष से देखे जाने में लज्जा आ रही हो।’’
‘‘चित्र जब देवराज के समीप गया तो मुझे बुलाया गया। जब मैं उनके कक्ष में उपस्थित हुआ, उस समय मेरा चित्र शची के हाथ में था। अन्य दस-बारह युवतियाँ भी शची को घेरे हुए उसे देख रही थीं। देवराज का ध्यान भी चित्र की ओर ही था। मेरे जाने पर सबकी दृष्टि चित्र से हटकर मेरी ओर हो गयी। मैं देवराज को आशीर्वाद दे सामने जाकर खड़ा हो गया। देवराज मुस्कराकर मेरी ओर देखने लगे। मैं इसका अर्थ समझ नहीं सका। इस कारण उनके कहने की प्रतीक्षा करता रहा। मुझे मौन देख देवराज कहने लगे, ‘तो यह चित्र आपने बनाया है?’’
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