उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ महाराज!’’
‘‘बहुत सुन्दर बना है। मुझे सन्देह हो गया था कि तुमने मेनका के सौन्दर्य की अतिशयोक्ति कर दी हैं। अतः हमने उसको उसी मुद्रा में नग्न खड़ी कर चित्र से मिलाया तो हम देखकर चकित रह गये कि जो सौन्दर्य हम इससे पूर्व उसमे नहीं देख सके थे, वह भी उसमे उपस्थित है। इसमें हम तुम्हारी सूक्ष्म-दृष्टि की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते और देखो से सब ललनाएँ कह रही है कि मैं तुम्हें इन सब का चित्र बनाने के लिए कहूँ। परन्तु...।’’
‘‘वे कहते-कहते रुक गये तो मैंने निवेदन किया, ‘परन्तु महाराज! मुझे पिताजी ने इन स्त्रियों के चित्र खींचने के लिए नहीं भेजा है। मैं तो अर्थशास्त्र का ज्ञाता हूँ और उसी दिशा में सेवा करने के लिए आया हूँ।’’
‘‘हमारे देश में तो राजनीति अथवा अर्थशास्त्र के ज्ञाता की कोई आवश्यकता ही नहीं है। यहाँ सब लोग शान्तिप्रिय और सब प्रकार से सन्तुष्ट हैं। हमने प्रजा के भोजन, वस्त्र और निवास का सुचारु रूप से प्रबन्ध कर दिया है। शेष हमने प्रजागणों को सब प्रकार की स्वतन्त्रता दे रखी है। ऐसी अवस्था में हम समझते हैं कि यहाँ तुम्हारे लिए कोई काम नहीं है। हाँ, यदि तुम चाहो तो हस्तिनापुर जा सकते हो। वहाँ जो कुछ देखो वह सब बताने के लिए वर्ष में एक बार यहाँ आ जाया करो।’’
‘‘मैं उनके इस कथन का अर्थ समझने का यत्न कर रहा था। इस पर देवराज फिर कहने लगे, ‘आगामी साठ-सत्तर वर्ष तक हस्तिनापुर एक भारी हलचल का केन्द्र बना रहेगा। जब से तुम वहाँ से आये हो, वहाँ पर बहुत-कुछ हो गया है। कब गये थे वहाँ?’’
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